प्रत्येक राष्ट्र के भाषाविद्, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता आदि एक स्वर में मातृभाषा में ज्ञानार्जन तथा अभिव्यक्ति को महत्व देते रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक कारणों से यह संभव नहीं हो पाता कि प्रत्येक व्यक्ति की मातृभाषा को व्यापक प्रचार-प्रसार मिले इसलिए उस देश की कुछ भाषाओं को ही वह स्थान प्राप्त हो पाता है जहॉ से वह भाषा लिखित और मौखिक प्रयोगों में अपनी उपयोगिता प्रमाणित करती है। इस प्रकार भाषाऍ अपनी क्षमताओं में निरन्तर विकास करती जाती हैं तथा प्रत्येक क्षेत्र की अभिव्यक्ति को बखूबी बयॉ करती रहती है। भाषा अपनी तमाम विशेषताओं के संग अपनी वर्चस्वता को भी बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहती है। आधुनिक युग में भाषा की सहजता, सुगमता और सहज स्वीकृति उतनी चुनौतीपूर्ण नहीं है जितनी चुनौतियॉ भाषा की वर्चस्वता के लिए है। अपने राष्ट्र की परिधि से निकल भाषा जितने अधिक अन्य राष्ट्रों में जाएगी वह भाषा उतनी ही सशक्त और सक्षम मानी जाएगी। उन्नत और उन्नतशील राष्ट्रों में भाषा की वर्चस्वता को लेकर एक अघोषित युद्ध जारी है।
यह अघोषित युद्ध दूसरे राष्ट्रों की भाषाओं के नकार जनित नहीं है बल्कि इस युद्ध का एकमात्र लक्ष्य अपनी भाषा की वर्चस्वता को स्थापित कर अपनी एक विशेष पहचान बनाना है। यह युद्ध भाषा की दृष्टि से ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टि से भी एक सकारात्मक युद्ध है जिसमें इन्टरनेट की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। सिमटते विश्व में एक राष्ट्र अपनी भाषा का प्रचार-प्रसार कर दूसरे देशों की प्रतिभाओं को अपने देश में आकर्षित करने का वैश्विक परम्परागत प्रयास करता है। विकासशील और विकसित दोनों राष्ट्र इस क्षेत्र में काफी तेजी से सक्रिय हैं तथा खामोशी से भाषा का युद्ध जारी है। यह युद्ध केवल राष्ट्रों के बीच नहीं है बल्कि अधिकांश बहुभाषी देशों में भी है जहॉ पर राष्ट्र की एक भाषा से दूसरी भाषा से लड़ाई है अर्थात राष्ट्र के भीतर भी वर्चस्वता के लिए भाषाऍ लड़ रही हैं। आए दिन समाचारों में भाषा विषयक इस प्रकार के समाचार मिलते रहते हैं।
इस युद्ध में तत्परतापूर्वक सिर्फ निर्णय ही नहीं लिया जा रहा है बल्कि निर्णय के कार्यान्वयन हेतु पहल और प्रयास भी हो रहा है। हाल ही में मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री मुह्यीद्दीन यासीन ने घोषणा कर दी कि वर्ष 2012 से विद्यालयों में गणित तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी भाषा में नहीं दी जाएगी बल्कि अंग्रेज़ी के स्थान पर चीनी या तमिल भाषा में शिक्षा प्रदान की जाएगी। इस प्रकार भाषा की एक जोरदार बहस मलेशिया में छिड़ गई तथा अंग्रेजी से चीनी तथा तमिल भाषा का संघर्ष आरम्भ हो गया। इस युद्ध का परिणाम मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री की घोषणा में सहजता से पाया जा सकता है। नेपाल ने भी भाषा का एक स्पष्ट युद्ध छेड़ दिया है। नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम उप-राष्ट्रपति परमानन्द झा द्वारा हिंदी में ली गई शपथ को अमान्य करते हुए उन्हें फिर से नेपाली भाषा में शपथ लेने के लिए कहा है। क्या यह दो उदाहरण भविष्य में भाषा के युद्ध में वृद्धि के संकेत नहीं दे रहे हैं ? यदि संशय है तो निम्नलिखित आंकड़े तस्वीर को और साफ करने में सहायक होंगे –
कुल फीचर फिल्मों की संख्या कुल दर्शकों की संख्या (करोड़ में)
भारत 1,132 3,290
यू।एस। ५२० १३६४
यह अघोषित युद्ध दूसरे राष्ट्रों की भाषाओं के नकार जनित नहीं है बल्कि इस युद्ध का एकमात्र लक्ष्य अपनी भाषा की वर्चस्वता को स्थापित कर अपनी एक विशेष पहचान बनाना है। यह युद्ध भाषा की दृष्टि से ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टि से भी एक सकारात्मक युद्ध है जिसमें इन्टरनेट की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। सिमटते विश्व में एक राष्ट्र अपनी भाषा का प्रचार-प्रसार कर दूसरे देशों की प्रतिभाओं को अपने देश में आकर्षित करने का वैश्विक परम्परागत प्रयास करता है। विकासशील और विकसित दोनों राष्ट्र इस क्षेत्र में काफी तेजी से सक्रिय हैं तथा खामोशी से भाषा का युद्ध जारी है। यह युद्ध केवल राष्ट्रों के बीच नहीं है बल्कि अधिकांश बहुभाषी देशों में भी है जहॉ पर राष्ट्र की एक भाषा से दूसरी भाषा से लड़ाई है अर्थात राष्ट्र के भीतर भी वर्चस्वता के लिए भाषाऍ लड़ रही हैं। आए दिन समाचारों में भाषा विषयक इस प्रकार के समाचार मिलते रहते हैं।
इस युद्ध में तत्परतापूर्वक सिर्फ निर्णय ही नहीं लिया जा रहा है बल्कि निर्णय के कार्यान्वयन हेतु पहल और प्रयास भी हो रहा है। हाल ही में मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री मुह्यीद्दीन यासीन ने घोषणा कर दी कि वर्ष 2012 से विद्यालयों में गणित तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी भाषा में नहीं दी जाएगी बल्कि अंग्रेज़ी के स्थान पर चीनी या तमिल भाषा में शिक्षा प्रदान की जाएगी। इस प्रकार भाषा की एक जोरदार बहस मलेशिया में छिड़ गई तथा अंग्रेजी से चीनी तथा तमिल भाषा का संघर्ष आरम्भ हो गया। इस युद्ध का परिणाम मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री की घोषणा में सहजता से पाया जा सकता है। नेपाल ने भी भाषा का एक स्पष्ट युद्ध छेड़ दिया है। नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम उप-राष्ट्रपति परमानन्द झा द्वारा हिंदी में ली गई शपथ को अमान्य करते हुए उन्हें फिर से नेपाली भाषा में शपथ लेने के लिए कहा है। क्या यह दो उदाहरण भविष्य में भाषा के युद्ध में वृद्धि के संकेत नहीं दे रहे हैं ? यदि संशय है तो निम्नलिखित आंकड़े तस्वीर को और साफ करने में सहायक होंगे –
कुल फीचर फिल्मों की संख्या कुल दर्शकों की संख्या (करोड़ में)
भारत 1,132 3,290
यू।एस। ५२० १३६४
चीन ४०० १९६
फ्रांस 240 १९०
फ्रांस 240 १९०
जर्मनी 185 129
स्पेन १७३ 108
इटली १५५ 108
रिप. ऑफ़ कोरिया ११३ 151
यू।के। १०२ 164
उक्त आंकड़ों में भारत ने वर्ष 2007 में कुल 1132 फीचर फिल्मों का निर्माण किया जिसमें मुंबई, हैदराबाद तथा चेन्नई में निर्मित फिल्में हैं। भारत में निर्मित फिल्मों की संख्या यू.एस., चीन तथा फ्रांस में निर्मित की कुल फिल्मों के बराबर है। यहॉ अचानक फिल्मों की चर्चा से आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह भी भाषा युद्ध का एक हिस्सा है। जितनी अधिक फिल्में होंगी भाषा का विपणन उतना ही अधिक होगा। भाषा का विपणन भाषा युद्ध का एक अभिन्न हिस्सा है। फिल्में एक भाषा विशेष तथा संस्कृति के आधार और क्षमता को बनाए रखती हैं और उसमें निरन्तर विकास करते रहती हैं। भारत देश में इतनी अधिक संख्या में फिल्मों का निर्माण भारतीय भाषा की पहुँच को विश्वस्तर तक ले जाने का भी एक प्रयास है। कला और संस्कृति से भाषा इतनी गहराई से जुड़ी है कि इनका एक अटूट पैकेज है।
इस भाषा युद्ध में यदि दक्षिण एशिया की चर्चा की जाए तो चीन सर्वोत्तम है तथा इसकी कोई मिसाल नहीं है। अपनी पहचान, अपनी बेहतर छवि तथा अपनी वर्चस्वता के लिए जारी इस भाषा युद्ध में भारत भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज किए है जिसमें फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। यूनिकोड की उपयोगिता में वृद्धि से इंटरनेट पर भी देवनागरी की सहज पैठ बन गई है जिससे हिंदी की लोकप्रियता को एक नया आधार मिला है।। भाषा का नकार तथा स्वीकार जारी है तथा इस युद्ध में भाषाऍ एक नए रूप में अभिव्यक्ति के नए अंदाजों सहित प्रस्फुटित हो रही है।
धीरेन्द्र सिंह
स्पेन १७३ 108
इटली १५५ 108
रिप. ऑफ़ कोरिया ११३ 151
यू।के। १०२ 164
उक्त आंकड़ों में भारत ने वर्ष 2007 में कुल 1132 फीचर फिल्मों का निर्माण किया जिसमें मुंबई, हैदराबाद तथा चेन्नई में निर्मित फिल्में हैं। भारत में निर्मित फिल्मों की संख्या यू.एस., चीन तथा फ्रांस में निर्मित की कुल फिल्मों के बराबर है। यहॉ अचानक फिल्मों की चर्चा से आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह भी भाषा युद्ध का एक हिस्सा है। जितनी अधिक फिल्में होंगी भाषा का विपणन उतना ही अधिक होगा। भाषा का विपणन भाषा युद्ध का एक अभिन्न हिस्सा है। फिल्में एक भाषा विशेष तथा संस्कृति के आधार और क्षमता को बनाए रखती हैं और उसमें निरन्तर विकास करते रहती हैं। भारत देश में इतनी अधिक संख्या में फिल्मों का निर्माण भारतीय भाषा की पहुँच को विश्वस्तर तक ले जाने का भी एक प्रयास है। कला और संस्कृति से भाषा इतनी गहराई से जुड़ी है कि इनका एक अटूट पैकेज है।
इस भाषा युद्ध में यदि दक्षिण एशिया की चर्चा की जाए तो चीन सर्वोत्तम है तथा इसकी कोई मिसाल नहीं है। अपनी पहचान, अपनी बेहतर छवि तथा अपनी वर्चस्वता के लिए जारी इस भाषा युद्ध में भारत भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज किए है जिसमें फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। यूनिकोड की उपयोगिता में वृद्धि से इंटरनेट पर भी देवनागरी की सहज पैठ बन गई है जिससे हिंदी की लोकप्रियता को एक नया आधार मिला है।। भाषा का नकार तथा स्वीकार जारी है तथा इस युद्ध में भाषाऍ एक नए रूप में अभिव्यक्ति के नए अंदाजों सहित प्रस्फुटित हो रही है।
धीरेन्द्र सिंह
आपकी विवेक-दृष्टि ने भाषाओं के अत्यन्त अदृष्य 'खेल' को देखने में सफलता पायी है। इतने विवेकशील लेख के लिये साधुवाद! इसी को कहते हैं कि 'जो अदृष्य है उसे देख लेने का नाम ही "दृष्टि" (विजन) है।'
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