बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

एक शाम

शाम की तलहटी में, चाहतों का सवेरा है
डूबते सूरज की मूरत में, वही चितेरा है
शाम की ज़ुल्फें खुलीं, हवा भी बौराई लगे
धड़कनें बहकने लगीं, चाहतों का डेरा है।

दिनभर की थकन, एक अबूझा सा दहन
हल्की-हल्की सी चुभन, सबने आ घेरा है
कदम भी तेज़ चले, नयनों में दीप जले
लिपट लूँ ख़्वाहिशों से, वह सिर्फ मेरा है।

ज़िंदगी भागती तो कभी लड़खड़ाती, दौड़ रही
अपने पल, अपने कोने का, मधुमय रेखा है
सिमट लूँ संग उनके, पल दो पल चुरा कर
जंग है ज़िंदगी, शबनम को ना सबने देखा है।

धीरेन्द्र सिंह

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