मराठी भाषा की अनिवार्यता
रविवार, 13 सितंबर 2020
प्रेयसी हिंदी
हिंदी दिवस पर मन अत्यधिक गहनता और व्यापकता से तुम्हारी अनुभूति करता है, विश्लेषण करता है और जीवकोपार्जन में तुम्हारी उपयोगिता की विभिन्न व्याख्या करता है। कल मेरी प्रेमिका ने मेरे राजभाषा के लेख को पढ़कर मुझसे प्रश्न की। बेहद साधारण सा प्रश्न था कि मैं हिंदी को क्या समझता हूँ। मैंने जो उत्तर दिया उनसे वह सहमत न थी और मैं उनको संतोषप्रद उत्तर न दे पा रहा था। प्रश्नों की झड़ी रोककर उन्होंने कहा कि यदि मैं प्रेम करूँगा तो किस भाषा में अभिव्यक्त करूँगा। मेरा उत्तर था हिंदी। उन्होंने कहा क्या आपने कभी अपनी हिंदी को प्रेयसी के रूप में देखा है? यह प्रश्न मुझे रोमांचित कर गया। सच हिंदी हमेशा मेरे निजतम भावनाओं की।संवाहिका रही पर हिंदी के इस स्पंदन से दूर ही रहा। मेरी प्रेमिका ने कहा कि अपनी प्रेमिका के स्थान पर हिंदी को बैठाकर मैं अपने भावों को लिखूँ।
क, ख, ग... से परिचित होते हुए हिंदी के शब्द और वाक्य बनाने की प्रसन्नता की धुंधली यादें अब भी जीवंत हैं। सस्वर वंदना, राष्ट्रगान प्राथमिक विद्यालय में अनुराग के ही द्योतक तो थे। कॉपी में या पुस्तकों के अंतिम पृष्ठ पर लिखे-मिटाए जानेवाले नाम। इस प्रकार हिंदी कब अस्तित्व से जुड़ गई पता ही न चला। जीवन के विभिन्न पक्षों को पहचानने तथा कई तरह के मनोभावों का एकमात्र विश्वसनीय चैनल हिंदी ही तो थी। आज जब अपनी हिंदी प्रेयसी से बातें कर रहा हूँ तो लग रहा है कि एक लंबी उम्र कस्तूरी मृग की तरह गुजार दी।
ओ मेरी प्रेयसी हिंदी आज यह बेहिचक स्वीकार कर रहा हूँ कि यदि तुम न होती तो मेरे अस्तित्व की पहचान भी न होती। सुनो बेहद रूमानी प्रेयसी हो। आदिकाल से आधुनिक काल तक तुम्हारे नूपुर की रुनझुन से खुद को अभिव्यक्त करते आया। कितना तराशा है न तुमने मेरे रूप को। मैं बेढब न दिखूं इसलिए तुमने अपने को विभिन्न रूपों में सजाकर मेरा साथ दिया। जब भी किसी उत्सव में मैं सम्मिलित हुआ तब तुम विशेष रूप से मेरी अभिव्यक्ति को एक नई धार और शब्दों से तराशती रही। मंचों पर लोग मेरी वाणी और प्रस्तुति की प्रशंसा नहीं करते थे बल्कि वह तुम्हारी ही प्रशंसा थी। भाषाओं के इस कठिन दौर में तुम जिस तरह सजी-संवरी कभी बातों में, कभी गीतों में, कभी मंचीय या फिल्मी संवादों में या शैक्षणिक वर्गों में गुंजित होती हो यह तुम्हारी अदाओं की शक्तियां ही तो है।
देखो न न जाने कब से मैं तुम्हारा अनुरागी हूँ पर अनुभूतियों का प्रस्फुटन आज हो रहा है। नसों में भावनात्मक चिंगारियां दौड़ रही हैं और तुम उन चिंगारियों की प्यास हो। तृष्णाएं तुमसे न जाने कब से तृप्त होती रहीं पर मन के भटकाव से तुम्हारे शब्दमयी सोंधेपन से आज रूबरू हो पा रहा हूँ। तुम्हारे पहलू में बैठ श्रृंगार के अनेक अध्यायों को आत्मसात किया पर तुम्हारे साँसों की ऊष्मा से अनभिज्ञ रहा। कई अवसरों पर तुमने किस तरह सहारा देकर संकट से उबारा है फिर चाहे वह अनुवाद हो या घोष वाक्य आदि लिखना हो। प्रेम का इतना मूक और भव्य यात्रा को न तो मैने कहीं पढ़ा न सुना। मेरी हिंदी तुम अद्भुत हो।
प्रज्ञा की असंख्य विधाएं हैं। प्रेम भी एक सशक्त प्रज्ञा है जो सूर्य की मानिंद व्यक्ति को आलोकित रखती है। प्रेम का सबसे आवश्यक अंग अभियक्ति है। अभिव्यक्ति के लिए भाषा आवश्यक है। मेरी हिंदी, मेरी आशा, मेरी भाषा, मेरा विश्वास तुम सजी-धजी हमेशा मेरे पास। आज यह भी स्वीकार करता हूँ कि मेरे प्रति तुम्हारे अगाध प्यार ने मुझे एक विशिष्ट पहचान दिया जो सिर्फ तुम पर ही आधारित है। तो मेरी मौन प्रेयसी यह लिखते समय भावुकता में मेरे नयन कोर भींग उठे हैं। हिंदी दिवस पर मेरा यह वादा है प्रिये कि तुमको सजाने-संवारने और बहुमुखी सौंदर्य वृद्धि में सम्पूर्ण प्रतिभा के संग लगा रहूंगा। सच तुमसा प्यारा, तुमसा रूमानी, तुम्हारे पहलू की जिंदगानी अन्यत्र कहीं नहीं। आ मेरी प्रेयसी नमन।
धीरेन्द्र सिंह
हिंदी के आधुनिक रूप के विकास में कार्यरत जिसमें कार्यालय, विश्वविद्यालय, प्रौद्योगिकी में देवनागरी लिपि, ऑनलाइन हिंदी समूहों में प्रस्तुत हिंदी पोस्ट में विकास, हिंदी के साथ अंग्रेजी का पक्षधर, हिंदी की विभिन्न संस्थाओं द्वारा हिंदी विकास के प्रति विश्लेषण, हिंदी का एक प्रखर और निर्भीक वक्ता व रचनाकार।
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