गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

राजभाषा प्रभारी - एक वैचारिक मंथन

वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन में एक क्रांति की आवश्यकता है इसलिए जरुरी है की राजभाषा का वैचारिक मंथन किया जाये। यहाँ यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि जब राजभाषा नीति है तब क्रांति की क्या आवश्यकता किन्तु यहाँ जिस क्रांति कि चर्चा होने जा रही है वह वैचारिक क्रांति है, कार्यान्वयन की क्रांति है। यदि आपका राजभाषा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है तब तो आपका इस मंथन में हार्दिक स्वागत है क्योंकि आपकी प्रतिक्रिया इस मंथन में संजीवनी बूटी का काम करेगा इसलिए अनुरोध है कि अपने अमूल्य विचार अवश्य प्रकट कीजियेगा और यदि आपका राजभाषा से सीधा सम्बन्ध है तब तो आप के बिना यह मंथन संभव ही नहीं है इसलिए कृपया जुड़े रहिये, जमे रहिये। कहाँ से आरम्भ किया जाये यह विचार मंथन जैसे किसी कार्यालय विशेष से, कार्यालय के उच्चाधिकारियों से, कार्यालय कर्मियों से या कहीं अन्य से . क्यों न हम इसे विभिन्न प्रमुख या प्रधान कार्यालय के राजभाषा विभाग से यह चर्चा आरम्भ करें, आखिर कार्यान्वयन की धारा का एक प्रमुख उद्गम स्थल यह भी तो है। कार्पोरेट कार्यालय के राजभाषा विभाग में होते हैं विभागाध्यक्ष जिनसे राजभाषा की गाड़ी के पहिया को गति और दिशा मिलती रहती है। राजभाषा विभाग के विभागाध्यक्ष के बिना राजभाषा कार्यान्वयन की बात करना आधारहीन है, यह वह धूरी है जिसपर कार्यालय विशेष के राजभाषा की गति और दिशा अवलंबित रहती है.

प्रत्येक कार्यालय के प्रधान या प्रमुख कार्यालय में राजभाषा विभाग होता है जिसमें एक विभागाध्यक्ष होता है। यह विभागाध्यक्ष राजभाषा कार्यान्वयन के लिए योजनायें बनाते हैं तथा इसकी स्वीकृति उच्च प्रबन्धन से प्राप्त करते हैं । राजभाषा के विभागाध्यक्ष उच्च प्रबंधन में कनिष्ठतम पद के होते हैं इसलिए इनके पास स्वयं निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं होता है।, यह केवल राजभाषा कार्यान्यवन की अपनी संस्था में निगरानी करते हैं । प्रायः राजभाषा कार्यान्वयन के निर्णय राजभाषा विभाग के महाप्रबंधक द्वारा किया जाता है । यह महाप्रबंधक राजभाषा कार्यान्वयन के बारे में पूरी जानकारी रखते हों यह आवश्यक नहीं है बल्कि इनका प्रमुख कार्य राजभाषा के वित्तीय मामले को स्वीकृति प्रदान करना है इसलिए राजभाषा कार्यान्वयन का प्रमुख दायित्व राजभाषा विभाग के प्रमुख का होता है जो विशेषज्ञ होते हैं . राजभाषा के प्रमुख दातिव्य से मेरा अभिप्राय राजभाषा कार्यान्वयन की योजनायें बनाना , महाप्रबंधक से उसका अनुमोदन प्राप्त करना और राजभाषा कार्यान्यवन समिति में उसकी स्वीकृति प्राप्त करना है । अक्सर राजभाषा कार्यान्यवन की योजनाओं को स्वीकृति मिल जाती है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जिस संस्था के राजभाषा विभाग का प्रमुख जितना सक्रिय, सतर्क और सामयिक सोच लिए होता है वह संस्था राजभाषा कार्यान्यवन में उतनी ही अग्रणी होती है .

राजभाषा विभाग का प्रमुख बन पाना आसान कार्य नहीं होता है । इस पद तक पहुंचते-पहुंचते राजभाषा अधिकारी के सेवा के अधिकतम 4- 5 वर्ष ही शेष रह जाते हैं । सेवाकाल के इन शेष वर्षों में राजभाषा कार्यान्यवन की चुनौतियों के संग राजभाषा अधिकारियों की टीम को भी प्रेरित, प्रोत्साहित और प्रयोजनमूलक बनाये रखने का दायित्व होता है । इसके अतिरिक्त संस्था के शीर्ष प्रबंधन से लेकर संस्था के छोटे से छोटे पद तक के कर्मचारी को राजभाषा से जोड़े रखना , राजभाषा की नवीनतम जानकारियों से अवगत करना होता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न सरकारी , गैर सरकारी बैठकों में सहभागी होकर राजभाषा पर चर्चाएं करना और अपनी संस्था को एक अग्रणी के रूप में बनाये रखना होता है । इन सबके बीच में राजभाषा के सामान्य कामकाज को भी जरी रखना होता है । इसलिए यह कहना कि 4-5 वर्ष का कार्यकाल राजभाषा कार्यान्यवन के लिए यथेष्ट है कुछ हद तक सत्य भी है और कहीं असत्य भी लगने लगता है । सत्य और असत्य के परस्पर विरोधी शब्दों का यहाँ प्रयोग इसलिए किया गया है कि राजभाषा विभाग के प्रमुख भी सामान्यतया ऐसे ही कार्यनिष्पादन दर्शाते प्रतीत होते हैं। सामान्यतया तीन प्रकार के राजभाषा प्रमुख होते हैं : पराक्रमी , लक्ष्यभेदी और उदासीन । इन तीनों के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं :-

पराक्रमी राजभाषा प्रमुख : राजभाषा के प्रति पूर्णतया समर्पित राजभाषा अधिकारी ही विभाग प्रमुख बन जाने पर पराक्रमी राजभाषा प्रमुख बन पाते हैं । यह वर्षों से संचित गुणों का प्रतिफल है अन्यथा राजभाषा प्रमुख बन जाने पर यदि एक राजभाषा अधिकारी पराक्रमी बनने की कोशिश करता है तो उसे असफलता ही मिलाती है । पराक्रमी राजभाषा कार्यान्यवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना और अपने संस्था का नाम रोशन करता है तथा इस वर्ग के राजभाषा अधिकारी की एक अलग पहचान बन जाती है । संस्था के प्रबंधन से लेकर राजभाषा जगत में अपने व्यक्तित्व को स्थापित करना इनकी प्रमुख विशेषता होती है। राजभाषा कार्यान्यवन के नए कीर्तिमान अधिकांशतः इसी वर्ग द्वारा स्थापित किया जता है . यह राजभाषा का दूरदर्शी वर्ग है । पराक्रमी राजभाषा प्रमुख कभी -कभी मिल पाते हैं और राजभाषा कार्यान्यवन में एक नयी जान फूंक जाते हैं जिसे दूसरी संस्थाएं भी सहर्ष अपनाती हैं .

लक्ष्यभेदी राजभाषा प्रमुख : राजभाषा प्रमुख का यह वर्ग अपने लक्ष्य के प्रति बेहद सतर्क रहता है। यह वर्ग अपनी पहल द्वारा किए जानेवाले कार्यान्वयन की तुलना में अपने वरिष्ठों विशेषकर अपने महाप्रबंधक की पहल का खासा ध्यान रखते हैं। यह हमेशा अपने वरिष्ठों द्वारा निर्धारित लक्ष्य की तलाश में रहते हैं और एक बार लक्ष्य मिल जाने क् बाद उसे पूर्ण करने में जुट जाते हैं। यद्यपि यह वर्ग खासा लोकप्रिय होता है किंतु राजभाषा कार्यान्वयन की दृष्टि से सफल नहीं होता है। हमेशा लक्ष्य की तलाश में रहने के कारण इस वर्ग के कार्यों में तारतम्यता नहीं रहती है परिणामस्वरूप कार्यान्वयन में बिखराव रहता है। यह वर्ग स्व के इर्द-गिर्द घूमते रहता है जिसके कारण स्वस्थ टीम भावना विकसित नहीं हो पाती है। राजभाषा जगत में इस वर्ग का बहुमत नज़र आता है।

उदासीन राजभाषा प्रमुख : इस वर्ग के प्रमुख राजभाषा कार्यान्वयन को बस चलाते रहते हैं तथा दैनिक कार्य अथवा अत्यावश्यक कार्य चलते रहता है। इस वर्ग के लोग प्राय: कार्यालयीन व्यवस्था से दुःखी रहते हैं तथा उन्हें लगता है कि संस्था ने उनकी योग्यता को पहचाना नहीं है। यह वर्ग जैसा चल रहा है, चलने दो नीति के अंतर्गत कार्य करता है। इनकी झोली में या तो शिकायतें रहती हैं अथवा कभी किए गए राजबाषा कार्यान्वयन की विजय गाथा रहती है जिसे यह लोग खुलकर बॉटा करते हैं। राजभाषा कार्यान्वयन को ऐसे प्रमुखों से काफी हानि होती है तथा प्रगति बाधित होती है या इतनी मंद हो जाती है कि लगता है कि रूक सी गई हो। यह वर्ग अपनी सुविधाओं तथा सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों पर अधिक केंद्रित रहता है।

किसी भी कार्यालय में यदि प्रभावशाली राजभाषा कार्यान्वयन करना हो तो सबसे पहले राजभाषा प्रभारी के कार्यनिष्पादनों का समग्रता से विश्लेषम किया जाना चाहिए। यदि सक्षम राजभाषा प्रभारी हैं तब उस कार्यालय को राजभाषा कार्यान्वयन में अभूतपूर्व सफलता मिलती है तथा राजभाषा की विभिन्न उपलब्धियॉ सहजतापूर्वक प्राप्त हो जाती हैं।


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2 टिप्‍पणियां:

  1. मैंने तो अधिकतर प्रमुखों में लक्षण नंबर दो देखा है। बाकी तो गौण रूप से मौजूद होते ही हैं। लेकिन चर्चा है सामयिक। विचार मंथन के बजाय इसका निराकरण ज़रूरी है।

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