राजभाषा कार्यान्यवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पत्रिका प्रकाशन भी है। प्रत्येक
कार्यालय अपने-अपने स्तर पर पत्रिका प्रकाशित करती हैं। राजभाषा कार्यान्यवन समिति
भी पत्रिका प्रकाशित करती है जिसमें समिति के सदस्य-सचिव पर पत्रिका के संपादन का दायित्व रहता है और समिति के कुछ चयनित सदस्य पत्रिका के संपादन
मंडल के सदस्य होते हैं। पत्रिका के लेख,कविता आदि के चयन के अतिरिक्त पत्रिका का
कलेवर, समय से प्रकाशन आदि अनेकों कार्य होते हैं जिसके लिए सम्पादन मण्डल को कई बार बैठक आयोजित कर निर्णय लेना पड़ता
है। इन सारी प्रक्रियाओं के दौरान कई ऐसी स्थितियाँ निर्मित होती हैं जो यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि राजभाषा कार्यान्यवन जगत में यह सब कब तक जारी रहेगा। ऐसी ही कुछ स्थितियों का वर्णन किया जा रहा है :-
1. सम्पादन मण्डल का
गठन : पत्रिका के सम्पादन मण्डल का गठन करना भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। समिति के सदस्य-सचिव का यह प्रयास रहता है कि सम्पादन मण्डल
में ऐसे सदस्य आयें जिनमें साहित्य की समझ और रचना प्रतिभा हो। इस सोच के बावजूद भी चयन में निम्नलिखित बिन्दुओं की प्रमुख भूमिका
होती है :
क
बड़े कार्यालयों को प्राथमिकता
देने की प्रवृत्ति ।
ख
क्रमानुसार प्रत्येक बैंक को अवसर देने की नीति।
ग
दबंग अधिकारियों से न निपट पाने पर उन्हें अवसर देने की विवशता ।
घ
चापलूसी के आधार पर सम्पादन मण्डल में सदस्यता के अभिलाषी । इन्हें अनदेखा करना
अत्यंत कठिन कार्य है।
च
वरिष्ठता के आधार पर अयोग्य राजभाषा अधिकारी को सम्मिलित करने की विवशता।
इस प्रकार प्रायः नगर राजभाषा कार्यान्यवन
समिति द्वारा प्रकाशित पत्रिका के सम्पादन मण्डल को सभी सदस्य योग्य, उत्साही और साहित्य में रुचि लेनेवाले नहीं मिल पाते हैं।
2 रचना चयन प्रक्रिया : रचनाओं के चयन में
भी कहीं रचना स्वीकारने की अनिवार्यता तो कहीं रचना को सम्मिलित करने की विवशता पत्रिका को
अपने बेहतर रूप में प्रकाशित करने में बाधक साबित होती हैं। समिति के सदस्य-सचिव अथवा
सम्पादन मण्डल के एक या कुछ सदस्य चाह कर भी उक्त स्थितियों में परिवर्तन नहीं ला
सकते हैं। सामान्यतया लगभग सभी सदस्यों को और विशेषकर सक्रिय सदस्यों को पत्रिका में
यथोचित स्थान देना ही पड़ता है इसलिए रचना की गुणवत्ता से अक्सर समझौता करना ही पड़ता है। यद्यपि पत्रिका में रचना से कहीं अधिक फोटो प्रकाशन
का दबाव रहता है। फोटो प्रकाशन में भी प्रत्येक सदस्य कार्यालय का निर्धारित कोटा होता
है जिसमें नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रमों
आदि को ही सम्मिलित किया जाता है। रचना चयन में आनेवाली कुछ प्रमुख कठिनाईयाँ निम्नलिखित
हैं :
क रचनाओं का ना मिल पाना: समिति की सदस्य संख्या चाहे 30 हो या 60 रचनाओं
की समस्या हमेशा रहती है। ऐसी बात नहीं है कि कार्यालयों में लिखनेवाले कम हैं किन्तु
अधिकांश इसलिए हिन्दी में नहीं लिखते हैं कि उन्हें वर्तनी विषयक समस्याएँ और भ्रांतियाँ
रहती हैं और अर्थ का अनर्थ की आशंका से हिन्दी में नहीं लिख पाते हैं। प्रत्येक कार्यालय
में सीमित संख्या में हिन्दी में लिखनेवाले होते हैं जिनकी पहचान लेखक के रूप में बखूबी
स्थापित हो चुकी होती है जबकि यह और बात है कि इनके द्वारा लिखी गयी रचनाएँ स्तरीय
हों यह आवश्यक नहीं है। रचनाओं के प्रेषण में समिति के अधिकांश राजभाषा अधिकारी अधिक सक्रिय होते हैं और उनकी कोशिश रहती है कि उनकी रचना को प्रमुखता प्रदान
करते हुये प्रकाशित किया जाये। कई अनुस्मारक और प्रयास के बाद सीमित संख्या में रचनाएँ
आती हैं जिन्हें प्रकाशित करने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहता है।
ख न रचना का कलेवर बदलता है ना रचनाकार : अधिकांश राजभाषा कार्यान्यवन समिति की पत्रिकाओं की यदि समीक्षा की जाय तो यह तथ्य उभरता है कि प्रत्येक समिति में रचनाकारों का एक समूह होता है जो अपनी-अपनी शैली में एक जैसी ही रचनाएँ लिखता है जिसके कथ्य, शब्द चयन, वाक्य विन्यास आदि
एक समान होते हैं जिससे इन पत्रिकाओं पर नज़र रखनेवाले सदस्य को शीघ्र ही पत्रिका की रचनाओं से उकताहट होने लगती है। पत्रिका के संपादक के रूप में समिति का सदस्य-सचिव आखिर करे भी तो क्या करे, आखिर उसे सबको साथ लेकर जो चलना है।
3 सम्पादन : पत्रिका के सम्पादन के
समय सम्पादन मण्डल की कई बार बैठक आयोजित की जाती है जिसमें प्रमुख होता है प्रेस से आई पत्रिका की पाण्डुलिपि की वर्तनी में सुधार करना, फोटो के क्रम को ठीक करना। शायद ही कभी होता हो कि रचनाओं का सम्पादन किया जाता हो अन्यथा जैसी रचना आती है वैसी
ही प्रकाशित हो जाती है। रचनाओं में आवश्यक सुधार भी नहीं किए जाते, अधिकांश सम्पादन मण्डल केवल नाम के लिए होते हैं। जिस समिति
का सम्पादन मण्डल अपना कार्य निष्ठापूर्वक करता है उस समिति की पत्रिका अपना अलग प्रभाव दर्शाती है लेकिन ऐसी
पत्रिका गिनी-चुनी हैं। सम्पादन के दौरान प्रत्येक सदस्य कार्यालय पत्रिका में अपनी वर्चस्वता चाहता है किन्तु बाज़ी सम्पादन मण्डल के सदस्य कार्यालयों
के पास होती है। यदि संपादक मण्डल के किसी सदस्य के मन में वर्चस्वता का विचार आए तो उसे पूर्ण करने में उसके पास अवसर होता है और यदि वह प्रेस में
जाकर किसी पृष्ठ के साथ छेड़-छाड़ करता है तो या तो वह सफल हो जाता है अथवा उसकी चाल सम्पादक मण्डल के समझ में आती है। इस तरह की चतुराई के प्रयास
से अधिकांश पत्रिकाएँ अपने स्तर को छू नहीं सकी हैं।
4 प्रकाशन और वितरण : पत्रिका का प्रकाशन और वितरण राजभाषा कार्यान्यवन
के संयोजक बैंक द्वारा किया जाता है। पत्रिका का प्रकाशन एक सराहनीय कार्य है जिससे
राजभाषा कार्यान्यवन को नयी गति और ऊर्जा मिलती है।
नगर राजभाषा कार्यान्यवन द्वारा प्रकाशित
पत्रिकाओं की यदि समीक्षा की जाये और इन पत्रिकाओं का तुलनात्मक अध्ययन कर
प्रकाशित किया जाय तो राजभाषा कार्यान्यवन के क्षेत्र में एक उल्लेखनीय कार्य होगा।
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