रविवार, 27 मार्च 2011

राजभाषा अधिकारियों की लाचारियाँ


 
युग की बेतहाशा गति में जिस प्रकार अन्य विषयों ने अपनी गति बधाई है और तदनुसार प्रगति दिखने के लिए प्रयत्नशील हैं उस प्रकार राजभाषा की गति नहीं दिख रही है. इस संशय ने जब इस विषय पर एक व्यक्तिय खोज अभियान का प्रयास शुरू किया तो पता चला कि अधिकांश राजभाषा अधिकारी राजभाषा के सिवाय अपने कार्यालय के अन्य विभागों का कार्य कर रहें हैं. जब और अधिक गहराई तक तोह लेने कि कोशिश की गयी तो ज्ञात हुवा कि राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा का कार्य नहीं करने दिया जाता है तथा उनसे कहा जाता है कि वे दूसरे विभागों को सहायता प्रदान करें. यह बात् मुझे स्वीकार्य नहीं हुयी तो मैंने सत्य को जानने के लिए अपने कई राजभाषा मित्रों से बातचीत कि तो यह सत्य प्रकट हुवा कि खुद राजभाषा अधिकारी ही रुचिपूर्वक अपना कार्य नहीं करते हैं इसलिए उन्हें दूसरे कार्यों का दायित्व दिया जाता है. विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी जब अपना काम लगन से नहीं करेंगे तो फिर उन्हें कौन प्रेरित करेगा ?

विभिन्न प्रकार के सरकारी कार्यालयों, उपक्रमों, बैंकों में राजभाषा कार्यान्यवन का मात्र एक प्रमुख प्रगति मापक वह है हिंदी की तिमाही रिपोर्ट. यदि तीन महीने में एक बार इस दो पृष्ठ के रिपोर्ट को भर कर भेज दिया जाये तो राजभाषा कार्यान्वयन का कार्य पूर्ण समझा जाता है. यह मेरी राय नहीं है बल्कि राजभाषा अधिकारियों ने इतने लंबे समय से राजभाषा को इसी रूप में स्थापित किया है. यदि तीन महीने में एक रिपोर्ट पर ही राजभाषा आधारित है तो क्यों कोई प्रबंधन अपनी मानव शक्ति को जाया जाने देगा वह कोई अन्य कार्य अवश्य देगा और देना भी चाहिए. ऐसी परिस्थिति में तो एकमात्र यही मार्ग दिखता है. राजभाषा अधिकारियों को यह नहीं मालूम कि उनकी राजभाषा के प्रति तिमाही रिपोर्ट को आखरी मंजिल बना देना आज उनके लिए ही कठिन स्थितियां निर्मित कर रहा है. यदि कोई राजभाषा अधिकारी यह कहता है कि उसके पास राजभाषा का इतना कार्य है कि वह दूसरा कार्य नहीं कर सकता और वह अपने कार्य से यह दर्शाता भी है तो प्रबंधन उसे राजभाषा का ही कार्य करने देता है लेकिन ऐसे लोग अँगुलियों पर गिने जाने की संख्या में हैं.

अपनी धूरी से हट जाने से राजभाषा अधिकारी अपनी विशेष पहचान भी खो रहें हैं जिसके परिणामस्वरूप कार्यालय में उन्हें मान-सम्मान की जो जगह मिलनी चाहिए वह दूर होती नज़र आ रही है. अब उन्हें कहीं भी कार्य के लिए बुला लिया जाता है. स्थिति यह निर्मित हो गयी है कि प्रबंधन यह समझने लगा है कि कार्यान्वयन कि चुनौतियों का सामना करने कि शक्ति अब अधिकांश राजभाषा अधिकारियों में नहीं रह गयी है. इसका कारण यह है कि राजभाषा अधिकारी वर्तमान राजभाषा परिवेश से ना तो पूरी तरह अवगत हैं और ना ही अद्यतन. तिमाही रिपोर्ट कि परिक्रमा कर राजभाषा कार्यान्वयन को पूर्ण मान लेनेवाले राजभाषा अधिकारियों को यह नहीं मालूम कि उन्होनें स्वंय को बाँध लिया है. इसके अतिरिक्त प्रौद्योगिकी कि चुनौतियाँ अलग से है. अधिकांश राजभाषा अधिकारी अब भी कंप्यूटर से कतराते हैं यदि उनपर कंप्यूटर पर कार्य करने को जोर डाला जाये तो कहते हैं कि आँखें कौन खराब करे. अर्थात आज से बीस वर्ष पूर्व राजभाषा जैसे थी आज भी वैसे ही है.

आज राजभाषा अधिकारी अपने को हाशिए पर पा रहा है. राजभाषा कि नयी चुनौतियों के लिए ना तो उसके मन में कुछ सीखने कि कामना है और ना ही अपने खुद के प्रयासों से वह प्रतियोगिता के युग में अपने महत्व को स्थापित कर पा रहा है. इसके बावजूद भी वह पदोन्नति कि स्वाभाविक कामना से पूरी तरह से ग्रसित है. आश्चर्य की बात यह है कि राजभाषा अधिकारियों के कार्यों कि गहन समीक्षा अब तक नहीं की गयी जिसके कारण इनकी समस्याएं, संभावनाएं तथा क्षमताएं अभी भी अनदेखी और अपरिचित हैं. इस दिशा में अविलम्ब सार्थक एवं सक्रिय प्रयास की आवश्यकता है अन्यथा राजभाषा अधिकारी केवल एक पदनाम में ही सिमट कर रह जायेगा.  


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