जीवन में, कल्पनाओं में अपना आकाश न हो तो जीवन निष्प्रयोजन लगने लगता है। यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या मात्र आकाश से ही व्यक्ति की अभिलाषाएं पूर्ण हो सकती है? अभिलाषा पूर्ति के लिए भाषा, अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का संतुलित तालमेल आवश्यक है। अपनी भावनात्मक और रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना निजी व्योम उतना ही आवश्यक है जितनी कि सांस। अभिलाषाएं निर्मित होती रहती हैं और भावनात्मक तथा रचनात्मक शक्ति भी मानव मन में निरंतर क्रियाशील रहता है।
आकाश ही है जिससे जुड़ व्यक्ति अपनी कामनाओं को बनाता, संवारता और रंगता है। स्वयं को अभिव्यक्ति करने की छटपटाहट व्यक्ति में निहित एक स्वाभाविक विशेषता है अतएव प्रत्येक व्यक्ति निरंतर स्वयं को अभिव्यक्त करते रहता है। इसी स्वाभाविक अभिव्यक्ति में भाषा का महत्व समय के साथ बढ़ता गया। समय ने न केवल भाषा के महत्व को बढ़ाया बल्कि उसकी शब्दावली में भी अंग्रेजी के अनेक शब्द प्रवाहित कर दिए। ज्ञातव्य है कि अंग्रेजी भाषा भारत की वह स्वीकार्य भाषा है जिसमें मान्य है कि ज्ञान और विज्ञान के नवीनतम द्वार सहजता से खुलते रहते हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी के नित नई शब्दावलियों का जुड़ना सामान्य व्यक्ति के आकाश को भाषिक दृष्टि से भ्रमित कर रखा है। ऐसे आकाश को भ्रमित करने के कारण निम्नलिखित हहैं :-
(क) : हिंदी “की बोर्ड” का लोप :- अब प्रत्येक हाँथ में एंड्रॉएड मोबाइल है जिसमें यह सुविधा है कि रोमन लिपि में टाइप करने से हिंदी शब्द टंकित हो जाते हैं। इस प्रकार तेज गति से हिंदी “की बोर्ड” का लोप हो रहा है। हिंदी ही क्यों अन्य भारतीय भाषाओं की भी यही स्थिति है।
(ख) : शब्दावली का अभाव :- भारतीय भाषाओं की प्रयुक्त शब्दावलियों का प्रयोक्ता के प्रयोग में लगातार कमी आती जा रही है। अपना व्योम है, कल्पनाएं हैं, अभिव्यक्ति की तृष्णा भी है किंतु सटीक अभिव्यक्ति के लिए उचित शब्दावली नहीं है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण विभिन्न हिंदी समूहों और इंटरनेट के विभिन्न पोस्ट अवलोकन से मिल जाएगा।
(ग) : मनोभाव का विश्लेषण न करना :- अपना व्योम रंगते समय रंग-रोगन विषयक ज्ञान और जानकारियां अत्यावश्यक है। एक मनोभाव उभरा और तत्काल उसे अभिव्यक्त कर देना परिपक्व चेतना नहीं होती। मनोभाव संग कुछ घंटे या दिन पूरी तरह से रहने पर अनुभूति की वह गहराई प्राप्त होती है जिसे अभिव्यक्त करते समय उचित शब्द स्वयं उभर आते हैं। ऐसी अभिव्यक्ति सशक्क्त और मनमोहक होती है।
(घ) : प्रकाशन की ललक :- कुछ भी लिखकर कुछ भी प्रकाशित कर देना एक ख्याति ललक के सिवा कुछ नहीं है। लेखन का यदि मूल उद्देश्य पुस्तक प्रकाशन है तो इसमें गहन धैर्य की आवश्यकता होती है। भावनाओं की रसरी जितनी बार कल्पनाओं पर आएगी-जाएगी अभिव्यक्ति उतनी ही निखरी और प्रभावशाली होगी। प्रायः धैर्य की कमी पाई जाती है जो व्यक्ति के आकाश को एक सामान्य रूप देती है और वह आकाश की भीड़ में खो जाता है।
(ङ) : सभ्यता और संस्कृति की समझ :- अभिव्यक्ति जिस पृष्ठभूमि से हो रही है उस पृष्ठभूमि की सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान या जानकारी नहीं रहेगी तो अभिव्यक्ति की अर्थछटा अपूर्ण या भ्रामक भाव संप्रेषित कर सकती है जिसका प्रभाव हानिकारक हो सकता है। ऐसे खतरों से बचना आवश्यक है।
उक्त आकलन से विभिन्न हिंदी समूह के लेखन से प्राप्त त्रुटियों की झलकियों से यह स्पष्ट हो रहा है कि न केवल हिंदी समूह के एडमिन, मॉडरेटर या सदस्य बल्कि इंटरनेट पर अपने-अपने आकाश को लेकर अपनी पहचान निर्मित करने के उत्सुक विभिन्न अभिव्यक्तिकार अपने आकाश के प्रभाव का गहन विश्लेषण नहीं करते हैं परिणामस्वरूप हजारों की संख्या में नित अभिव्यक्तियों के प्रवाह में अधिकांश अभिव्यक्तियाँ इतनी उबड़-खाबड़ होती हैं कि अत्यधिक आकाश अनगढ़ और सहमे हुए प्रतीत होते हैं। हिंदी भाषा और हिंदी लेखन ऐसे ही दौर से गुजरते हुए एक प्रतियोगी दौड़ का भ्रम पाले हुए है।
धीरेन्द्र सिंह
04.04.2025
09.00