बुधवार, 2 अप्रैल 2025

नग्नता के विरोध में


नग्नता हमेशा सीमा रेखाओं के अंतर्गत चर्चित शब्द है। नग्न कितना होना चाहिए इसपर भी समाज में स्पष्ट भेद है। कहीं नग्नता पूजनीय है जैसे महावीर जी, नागा साधु-सन्यासी तो कहीं नग्नता फैशन शो में वस्त्र और आभूषण सज्जित मान्य है तो कहीं नग्नता परिवेशगत परिस्थितियों में  स्वीकार्य है जैसे नदी, पोखर में स्नान आदि। व्यक्ति कपड़े क्यों पहनता है यदि यह प्रश्न उभरे तो उत्तर होगा मौसम प्रमुख रूप से प्रभावी है कालांतर में नग्नता एक असभ्यता के रूप में मानी जाने लगी और वस्त्र उस असभ्यता को ढाँपता एक सामाजिक अनिवार्यता बन गया।


नग्नता विषयक इसी उधेड़बुन में मैंने एक कविता लिख दी। इस कविता को अपने फेसबुक और अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने के बाद हिंदी के कुछ समूह में पोस्ट किया। अपनी रचना के सम्प्रेषण को और प्रभावशाली तथा संप्रेषणीय बनाने के लिए बैले नर्तकी की इमेज भी डाल दिया। कविता और इमेज निम्नलिखित है :-


वस्त्र की दगाबाजी

कहां से सीखा मानव

कब कहा प्रकृति ने

ढंक लो तन कपड़ों से,

सामाजिकता और सभ्यता का दर्जी

सिले जा रहा कपड़े

मानवता उतनी ही गति से

होती जा रही नग्न,

क्या मिला 

ढंककर तन,


धरती, व्योम पहाड़, जंगल

जल, अग्नि, वायु सब हैं नग्न,

जंगल में कैसे रह लेते हैं

पशु, पक्षी वस्त्रहीन

नहीं बहती जंगल में

कामुकता और अश्लीलता की बयार,

क्या मनुष्य ने

चयन कर वस्त्र

किया निर्मित हथियार ?


नग्न जीना नहीं है

असभ्यता या कामुकता

बल्कि यह 

स्वयं का परिचय,

स्वयं पर विश्वास,

शौर्य की सांस, 

शालीनता का उजास है,

नग्न कर देना

आज भी सशक्त हथियार है

मानवता

वस्त्र में गिरफ्तार है।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2025

16.49


(संबंधित इमेज संलग्न है)


इस कविता को पोस्ट करते ही तत्क्षण एक समूह के एडमिन का संदेश आया “चित्र बदलकर पुनः पोस्ट कर दीजिए धीरेन्द्र जी” आग्रह बहुत मीठा और सम्मानजनक था। एडमिन के इस आग्रह को एक सुझाव मानकर इमेज बदलने के लिए स्क्रीन पर अंगुली दौड़ाया ही था कि मस्तिष्क ने प्रश्न किया – “लेकिन क्यों ?” यह सुनकर स्क्रीन पर अंगुली ठिठक गयी और मैंने एडमिन को संदेश टाइप किया –“रचना ही हटा देता हूँ” उत्तर मिला –“ नहीं। मेरी विवशता समझें। महिलाएं बहुत हैं न मंच पर” यह पढ़कर मैंने भी “जी” टाइप कर इस विषय को विराम दे दिया।


थोड़ी देर बाद एक दूसरे समूह के मॉडरेटर शर्मा की समूह में प्रकाशित इस कविता और इमेज पर टिप्पणी आयी –“फोटो रचना के अनुरूप है फिर भी इस तरह के फोटो न डालें महोदय” मॉडरेटर ने भी शालीनता से अपनी बात रखी। रचना को संपूर्णता में स्वीकार कर इमेज अस्वीकार करना मुझे आहत कर गया और समूह छोड़ने की बात कह दी। अंदाज़ में मेरे तल्खी थी। कई घंटे बीत गया पर मॉडरेटर का कोई उत्तर नहीं आया। इसी रचना पर समूह के दूसरे मॉडरेटर जैन जो ग्रुप एक्सपर्ट हैं उन्होंने भी इस कविता की प्रशंसा की और मैंने कहा कि बैले डांस करती नर्तकी की टांग कैसे अशोभनीय है। आपके समूह के मॉडरेटर शर्मा की फोटो पर आपत्ति है चूंकि आप समूह विशेषज्ञ हैं इसलिए विचार देय।  उत्तर नहीं मिला। मेरी रचनाओं पर इसी समूह के एडमिन भी अपनी प्रतिक्रिया देते थे वह भी पूरा दिन गुजर जाने के बाद भी मेरे इस पोस्ट पर नहीं आये। यह समूह मेरठ से संचालित होता है हिंदी के एक ख्यातिप्राप्त कवि के नाम पर है।


हिंदी समूह में शब्दों द्वारा श्रृंगार को इस हद तक निखारा जाता है कि श्रृंगार की शालीनता कंपित होने लगती है, ऐसे पोस्ट प्रायः पढ़ने को मिलते हैं। यदि एक विश्व प्रसिद्ध नर्तन मुद्रा की इमेज रचना संग पोस्ट कर दी जाती है तो एक मॉडरेटर अश्लीलता की ओर इशारा कर रचनाकार को शालीन इमेज पोस्ट करने की सकाह देता है। समूह का ग्रुप एक्सपर्ट चुप रहता है और समूह के एडमिन क्या उत्तर दें इस डर से प्रतिदिन की तरह वह सब भी पोस्ट पर नहीं आए। यहां एक व्यावहारिक पक्ष उभरता है कि निःशुल्क अपनी सेवा देनेवाला मॉडरेटर एक रचनाकार से कहीं अधिक उपयोगी इस समूह को लगा या यह भी कहा जा सकता है कि मॉडरेटर विशेष पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने की समूह पदाधिकारियों में चाहत ही न हो। एक संदेह पर रचनाकार समूह से प्रातःकाल से प्रश्न दो बार कर चुका पर शाम तक उत्तर ही नहीं है। हिंदी के अधिकांश समूह इसी प्रकार कार्य करते हैं।


मेरा हिंदी समूह में एक सदस्य के रूप में जाकर प्रतिदिन पोस्ट भेजते हुए यह अनुभव हुआ कि मध्य प्रदेश के हिंदी समूह देश के अन्य राज्यों के हिंदी समूह की तुलना में अधिक कुशलता से कार्य करते हैं। पश्चिमी उत्तरप्रदेश के हिंदी समूह में अक्खड़पन और समूह के सदस्यों के साथ व्यवहार में शुष्कता रहती है। मैंने उस समूह को तो नहीं छोड़ा जो इस प्रस्तुति का पहला समूह है और मध्य प्रदेश से कार्यरत है और जहां “जी” लिखकर छोड़ दिया था। दूसरा समूह छोड़ने जा रहा हूँ क्योंकि गूंगे और मूक लोगों के बीच जीवंतता क्रमशः लुप्त हो जाती है। ऐसे अबोले समूह एडमिन और मॉडरेटर के बीच रहकर रचनात्मकता घायल होती है अतएव ऐसे समूह का त्यजन ही श्रेष्ठ मार्ग है।


धीरेन्द्र सिंह

02.04.2025

17.02





Subscribe to राजभाषा/Rajbhasha

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें