शुक्रवार, 14 मार्च 2025

जोगिया यह संसार

जगत के जोग (योग) में जोगिया बने अधिसंख्य लोग इहलोक से लेकर परलोक तक को सुसज्जित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। वर्ष 2025 का महाकुम्भ जोगिया जीवन का विस्तृत प्रदर्शन और प्रस्तुति कर्म में सफल रहा है। यहां यह उल्लेखनीय है कि यदि महाकुम्भ को कैमरे की दृष्टि से देखा जाएगा तो महाकुम्भ के किसी एक कोने का ही दृश्य मिलेगा और लगभग सम्पूर्ण अनुभूति के लिए जब तक महाकुम्भ जैसे परिवेश में व्यक्ति स्वयं न जाए तब तक आंशिक और अपूर्ण तथ्यों-कथ्यों में ही भृमण करना होगा। जोगिया क्या विभिन्न अखाड़ों के साधु-सन्यासी मात्र थे? यदि जोगिया परिधान और अखाड़ा विशेष से संबंधित ही जोगिया के पात्र हैं ? ऐसी सोच भ्रामक कही जा सकती है।


दस-बीस किलोमीटर सर पर बोझ लिए चलते असंख्य व्यक्ति मात्र श्रद्धालु नहीं थे बल्कि अपने-अपने स्तर पर योगी थे। सब जोगिया थे। हम कितना अपनी दृष्टि से देख, बांच और विश्लेषण कर पाते हैं। वर्तमान में तो इलेक्ट्रॉनिक शक्ति के वशीभूत होकर लोग उसी दिशा में चल पड़ते हैं जहां इलेक्ट्रॉनिक जगत ले जाता है। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि महाकुम्भ की भीड़ भी इलेक्ट्रॉनिक जगत का प्रभाव हो ? कुंभ, अमावस्या और माघ मेला से अपरिचित लोग ही इस तरह के तर्क पर विश्वास कर सकते हैं अन्यथा यह तो सदियों से भारतीय संस्कृति का अविभाज्य अंग रहा है। जोगी हो जाना एक जीवन शैली है और संभवतः प्रत्येक घर या खानदान में कोई न कोई जोगी के जीवन को जीते हुए मिल जाता है।


जोगिया का अभिनव रूप होली में भी निखरता और बिखरता है। महाकुम्भ में मीडिया नागा साधु के अखाड़े, अमृत स्नान के इर्दगिर्द अधिक रहा जबकि श्रेष्ठ भूमिका निभाते कई अखाड़े तन्मय होकर जनसेवा कर रहे थे। कल्पवासी और अधिकांश अखाड़े प्रयागराज महासकुम्भ से लौट गए थे तब उदासीन अखाड़ा का कार्यनिष्पादन मैंने देखा और पाया कि उनकी चाय और भोजन सेवा इतनी गुणवत्तापूर्ण थी कि बाजार के होटल की चाय आदि फीकी लगती थी। मैं जिस टेंट में रुका था उसके ठीक सामने उदासीन अखाड़ा था। इस उदाहरण का अभिप्राय यह है कि हम दूसरे द्वारा प्रस्तुति विशेषकर मीडिया को सत्य मानकर स्वीकार कर लेते हैं पर क्या मीडिया हमेशा सत्य दर्शाता है यह विचारणीय है।


नग्नता व्यक्ति को आकर्षित करती है और भारतीय समाज में नग्नता को छुपाने में लगभग 60 प्रतिशत ऊर्जा नित्य व्यय होती है। अमृत स्नान के लिए नागा साधू आ रहे हैं और लोगों की भीड़ आंखें फाड़कर उन्हें देखने नहीं दर्शन करने के लिए लालायित हैं। नग्नता कहां सहजता से उपलब्ध है भारत में ? नागा साधु और साध्वी कुछ तप से कुछ कृत्रिम रूप से स्वयं को संयमित कर नग्नता को पूजनीय रूप में प्रस्तुत करते है। देवी-देवता भी इसी तथ्य के सर्वोत्तम रूप में पूजनीय और वंदनीय हैं। नग्न हो जाना असाधारण बौद्धिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति का परिचायक है। महाकुम्भ में गंगा घाट के किनारे जब मैं अपने लोगों के कपड़े और जूते-चप्पल की रखवाली करने के लिए बैठा था तो नग्नता अपने सहज और स्वाभाविक रूप में चारों ओर थी और कोई फटी आंखों से किसी को न तो घूर रहा था न देख रहा था चाहे श्रद्धालु हों, पुलिसकर्मी हों या चाय बेचनेवाला सब कुछ सहज और सामान्य था। नग्नता वहां संज्ञाहीन और आकर्षणहीन थी। स्नान कर तट पर लौटी भीड़ में बैठे-बैठे लगभग 45 मिनट तक यही विश्लेषण करते रहा।


गंगा घाट की तरह विचारों और अभिव्यक्तियों की सरणी के कई हिंदी समूह सक्रियतापूर्वक कार्यरत हैं। इन हिंदी समूहों की प्रकाशित लेखन की विभिन्न विधाओं का विश्लेषण करने के बाद ज्ञात हुआ कि समूह भी घाट की तरह काम कर रहा हैं। कुछ समूह केवल भावनात्मक प्यार की पोस्ट से ही भरे होते हैं ठीक वैसे ही जैसे तीन दशक पहले हिंदी फिल्मों में नायक और नायिका के चुम्बन को दो फूलों को झुकाकर एक दूसरे से सटाकर प्रदर्शित किया करते थे। कुछ समूह बिना मॉडरेशन के कार्यरत हैं और आश्चर्य की बात हैं कि ऐसे समूह में कथित अभद्रता नहीं दिखती है क्योंकि ऐसे समूह साहित्य की विधा का एक अनुशासन और एक निर्धारित ढर्रा अपनाए हैं। ऐसे भी समूह मिले जो दो-चार पंक्तियों में अनियंत्रित विचारों को पोस्ट करते रहते हैं।


हिंदी समूहों का महाकुम्भ भी अपने विभिन्न अखाड़े (समूह) को लेकर हिंदी साहित्य के जिस विविध रूप को प्रस्तुत कर रहा है उंसमें कुछ परेशानियां है जैसे अभद्र, अशोभनीय और राजकीय अभिव्यक्तियाँ जो समूह के लिए  न तो उपयुक्त हैं और न ही समूह इतनी व्यापकता की तह तक जाने की सामर्थ्य रखता है अतएव समूह को निरंतर सजग और चौकन्ना रहना पड़ता है। कुछ समूह के एडमिन और मॉडरेटर साहित्य की इतनी गहन समझ रखते हैं कि पहली नजर में ही पोस्ट की गुणवत्ता समझकर पोस्ट को अनुमोदित कर देते हैं। कुछ समूह रचनाकार को पढ़ते हैं और उनकी पोस्ट को उनका नाम देखते ही पटल पर जाने देते हैं। हिंदी समूह सत्यता को नग्नता की हद तक नहीं ले जाना चाहता है। हिंदी समूह के इस महाकुम्भ में अखाड़े जीवंत हों इसके लिए विभिन्न समूह का श्रम वंदनीय है।


धीरेन्द्र सिंह

15.03.2025

09.17


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