गुरुवार, 24 जून 2010

राजभाषा और न्यायपालिका

विश्व  के सबसे बड़े जनतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका हमेशा से उल्लेखनीय और प्रशंसनीय रही है परन्तु यह भी एक तथ्य है कि आम जनता को सामान्यतया उच्च न्यायालय की भाषा हमेशा अपरिचित और अबूझी लगती रही है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि उच्च न्यायालय में अंग्रेजी भाषा का ही वर्चस्व है। भारत के संविधान में कहा गया है कि -

अनुच्छेद 210: विधान-मंडल में प्रयोग की जाने वाली भाषा - (1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधान-मंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा

परंतु, यथास्थिति, विधान सभा का अध्यक्ष या विधान परिषद् का सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को,जो पूर्वोक्त भाषाओं में से किसी भाषा में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा ।

अध्याय 3 - उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों आदि की भाषा

अनुच्छेद 348. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों, विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा--

(1) इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा

उपबंध न करे तब तक--

() उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी,

() (i) संसद् के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन में पुरःस्थापित किए जाने वाले सभी विधेयकों या प्रस्तावित किए जाने वाले उनके संशोधनों के,

(ii) संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा पारित सभी अधिनियमों के और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित सभी अध्यादेशों के ,और

(iii) इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन निकाले गए या बनाए गए सभी आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों के, प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे।

(2) खंड(1) के उपखंड () में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है,हिन्दी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगाः

परंतु इस खंड की कोई बात ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश को लागू नहीं होगी।

(3) खंड (1) के उपखंड () में किसी बात के होते हुए भी, जहां किसी राज्य के विधान-मंडल ने,उस विधान-मंडल में पुरःस्थापित विधेयकों या उसके द्वारा पारित अधिनियमों में अथवा उस राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित अध्यादेशों में अथवा उस उपखंड के पैरा (iv‌) में निर्दिष्ट किसी आदेश, नियम, विनियम या उपविधि में प्रयोग के लिए अंग्रेजी भाषा से भिन्न कोई भाषा विहित की है वहां उस राज्य के राजपत्र में उस राज्य के राज्यपाल के प्राधिकार से प्रकाशित अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद इस अनुच्छेद के अधीन उसका अंग्रेजी भाषा में प्राधिकृत पाठ समझा जाएगा।

संविधान के उपरोक्त अनुदेशानुसार उच्चतम न्यायालय की भाषा तो अंग्रेजी रहेगी किन्तु उच्च् न्यायालय की भी भाषा अंग्रेजी बनाए रखना कितना प्रासंगिक है ? इस प्रकार के अनेकों प्रश्न समय-समय पर उठते रहते हैं तथा एक बौद्धिक हलचल मचाते रहते हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल (प्रशासन) ने वकीलों के एसोसिएशन की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष अशोक अग्रवाल को भेजे ज्ञापन पत्र में कहा है कि उच्च न्यायालय में हिंदी को लेकर विचार किया जा रहा है लेकिन उसे स्वीकार नहीं किया गया है। यद्यपि राजस्थान, इलाहाबाद और मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है लेकिन राष्ट्रीय राजधानी में इसका प्रयोग नहीं किया जा रहा। जिस बात को विधि महाविद्यालयों की कक्षाओं से उठानी चाहिए उसे न्यायालय परिसर में उठाने से कितना लाभ मिल पाएगा यह विचारणीय है। यह एक कटु सत्य है कि हिंदी में विधि की स्तरीय पुस्तकों की संख्या बहुत कम हैं और इससे भी अधिक चिंता वाली बात यह है कि विधि विषय पर हिंदी में मूल लेखन ना के बराबर है। विधि संबंधी हिंदी में एक भी लोकप्रिय पत्रिका नहीं है। इस तरह के अनेकों मुद्दे हिंदी को विधिक भाषा बनने से रोके हुए है। आवाजें इन क्षेत्रों में उठनी चाहिए, हलचलें यहॉ होनी चाहिए।

न्यायपालिका में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व इतना अधिक है कि इस प्रकार की भी टिप्पणियॉ की जाती हैं कि अदालतों की भाषा हिन्दी करने से देश की एकता और अखंडता प्रभावित होगी, इससे भाषाई अहमवाद फैलेगा और पूर देश में राजनैतिक तथा कानूनी बदअमनी का माहौल बनेगा। यह ध्यान रखना चाहिए कि देश के हर नागरिक और हर कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित किए गए कानून को समझने का अधिकार है। इसके लिए एक ही भाषा है, और वह है अंग्रेजी। इस प्रकार की टिप्पणी करनेवाले सामान्य जनता की भाषा हिंदी को भूलकर अंग्रेजी की जब इस उन्मुक्तता से चर्चा करते हैं तो उनकी सोच पर संदेह होने लगता है। जिस देश की एकता, संपर्क आदि को बनाए रखने में हिंदी अपने आप को प्रमाणित कर चुकी है उस भाषा के लिए ऐसी टिप्पणी ना जाने क्यों गले के नीचे नहीं उतरती है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि जिस भाषा में जज प्रवीण नहीं है, क्या उस भाषा में जज फैसला दे सकता है ? यदि ऐसा हुआ तो इससे कानून के प्रावधानों का गलत अर्थ निकलेगा। यह तर्क व्यवहारिक है अतएव इसके लिए न्यायपालिका में मुंबई उच्च न्यायालय की अनुशंसा जैसी तैयारी होनी चाहिए जिसमें यह उल्लेख है कि राज्य सरकार सिविल जज तथा न्यायपालिका के प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट पद हेतु आवेदन करनेवाले अभ्यर्थियों का मराठी में परीक्षा लेने की अनुमति प्रदान करे।

हाल ही में मुंबई उच्च न्यायालय ने मुख्य न्यायाधीश तथा न्यायालय के सभी न्यायाधीशों से यह अनुरोध किया है कि ऐसी प्रणाली तलाश की जाए कि मराठी दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद के बगैर याचिका मराठी में दायर की जा सके। इस विषय पर मुंबई उच्च न्यायलय के न्यायाधीशों ने कहा कि उन्होंने पाया है कि अंग्रेजी अनुवाद की तुलना में मराठी मूल की प्रतियॉ ज्यादा विश्वसनीय रही हैं। यह मात्र उदाहरण स्वरूप है जिससे यह स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका को भाषा मुद्दे पर गहन विचार कर तदनुरूप कार्रवाई करनी चाहिए क्योंकि यह समय की मॉग है। देश का 26/11 के चर्चित मुकदमे के न्यायाधीश एम.एल. तहलियानी के उर्दू ज्ञान ने मुकदमे के कठिन क्षणों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की क्योंकि अभियुक्त को उर्दू भाषा ही आती थी। इस तरह के अनेकों तथ्य हैं जो दर्शाते हैं कि न्यायपालिका को क्रमश: हिंदी को उच्च न्यायालय में स्थापित करने हेतु प्रयास आरंभ करना चाहिए।

यह सर्वविदित तथ्य है कि न्यायपालिका में हिंदी लाने के लिए विधि महाविद्यालयों तथा विधि के विद्वानों की सार्थक पहल और प्रयास के बिना विधि क्षेत्र में प्रभावशाली एवं जनोपयोगी हिंदी की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस कार्य को निम्नलिखित रूप से आगे बढ़ाया जा सकता है –

1. विधि विषयक सहज, सुबोध एवं बोधगम्य हिंदी पुस्तकों की उपलब्धता।

2. हिंदी में विधि विषयक हिंदी पत्रिका का प्रकाशन।

3. विधि महाविद्यालयों में विधि एव हिंदी को लेकर एक कार्यशील पहल तथा प्रयास जिसमें विधि संकाय सहित विधि विद्यार्थियों की सक्रिय सहभागिता हो।

4. विधि शब्दावली का नियमित प्रकाशन जिसमें हिंदी में प्रयोग किए जा रहे अद्यतन शब्दावलियॉ नियमित रूप से सम्मिलित की जाती रहें।

5. विभिन्न कार्यालयों द्वारा अपनी गृहपत्रिकाओं में हिंदी में विधि विषयक लेखों का समावेशन तथा विधिक लेखन को प्रोत्साहन।

6. न्यायालयों में अधिवक्ताओं द्वारा हिंदी कार्य।

उक्त प्रयासों से राजभाषा कामकाज में विधिक लेखन आदि को बल मिलेगा तथा विभागीय विधिक कार्रवाईयों में हिंदी में अनगढ़ अनुदित भाषा के बजाए क सहज, स्वाभाविक हिंदी भाषा का प्रवाह होगा जिसका प्रत्यक्ष सबसे अधिक लाभ कर्मचारियों को होगा।

धीरेन्द्र सिंह







बुधवार, 12 मई 2010

राजभाषा कार्यान्वयन समिति और राजभाषा अधिकारी

भारत सरकार के सभी कार्यालयों,उपक्रमों,बैंकों आदि में राजभाषा कार्यान्वयन को सुचारू, सुनियोजित और सुंदर ढंग से संचालित करने के लिए राजभाषा कार्यान्वयन समिति का गठन किया गया है। इस समिति का गठन प्रत्येक कार्यालय, शाखा आदि में अनिवार्य है। इस समिति की बैठक प्रत्येक तिमाही में कम से कम एक बार अवश्य आयोजित की जानी चाहिए। सामान्यतया अप्रैल-जून, जुलाई-सितम्बर, अक्तूबर-दिसंबर तथा जनवरी-मार्च की कुल चार तिमाहियों में राजभाषा कार्यान्वयन समिति की कुल चार बैठकें आयोजित की जाती हैं। इस समिति के बारे में कुछ बातें प्रश्नोत्तरी शैली में प्रस्तुत हैं :-

प्रश्न – राजभाषा कार्यान्वयन समिति की गठन की आवश्यकता क्यों तथा इसका गठन अनिवार्य क्यों है ?

भारत सरकार अपनी राजभाषा नीति के अनुच्छेद 351 में कहा गया है कि,

संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके...

अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि राजभाषा के रूप में हिंदी भाषा का प्रसार एवं उसके विकास के लिए प्रत्येक कार्यालय में राजभाषा विषयक चर्चा एवं राजभाषा प्रगति की समीक्षा हो तथा यह कार्य एक समिति गठित कर सुविधापूर्वक किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त राजभाषा नियम के कुल 12 प्रमुख नियम में से नियम 12 में यह स्पष्ट किया गया है कि केन्द्रीय सरकार के प्रत्येक कार्यालय के प्रशासनिक प्रधान का यह कर्तव्य होगा कि वह यह सुनिश्चित करे कि अधिनियम और नियमों के उपबंधों और उपनियम (2) के अधीन जारी किए गए निदेशों का समुचित अनुपालन हो रहा है और इस प्रयोजन के लिए उपयुक्त और प्रभावकारी जॉच के लिए उपाय करें। इस प्रकार राजभाषा कार्यान्वयन समिति का गठन आवश्यक एवं अनिवार्य हो जाता है।
प्रश्न 2-इस समिति के पदाधिकारी कौन होते हैं और पदाधिकारियों की अधिकतम संख्या क्या है ?

राजभाषा नियम 12 में कहा गया है कि प्रत्येक सरकारी कार्यालय में राजभाषा कार्यान्वयन का दायित्व प्रशासनिक प्रधान का है इसलिए प्रत्येक कार्यालय में इस समिति का पदेन अध्यक्ष कार्यालय विशेष के प्रशासनिक प्रमुख होते हैं तथा समिति का पदेन सदस्य-सचिव कार्यालय विशेष का राजभाषा अधिकारी होता है। इन दो पदों के अतिरिक्त समिति के सदस्य होते हैं जो सामान्यतया कार्यालय के विभिन्न विभागों के प्रमुख होते हैं। इस समिति की कोई निर्धारित संख्या नहीं होती है, कार्यालय के आकार के अनुसार संख्या होती है। कार्यालय के सभी विभाग प्रमुखों को इस समिति का सदस्य बनाना अनिवार्य है। इसमें कटौती करने अथवा चयनित विभागों के प्रमुखों को सदस्य बनाने से समिति का मूल उद्देश्य प्रभावित होता है। अपनी सुविधावश कुछ कार्यालय उपाध्यक्ष पद भी रखते हैं जो आवश्यक नहीं है।

राजभाषा अधिकारी : यहॉ पर राजभाषा अधिकारी का यह दायित्व होता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि कार्यालय के सभी विभागों के प्रमुख इस समिति के सदस्य हों। समिति को चोटी बनाने के प्रयास में किसी विभाग को छोड़ना प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

प्रश्न3- प्रत्येक 3 महीने में अपनी बैठक में क्या चर्चा करती है यह समिति ?

राजभाषा कार्यान्वयन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग द्वारा प्रत्येक वर्ष वार्षिक कार्यक्रम जारी किया जाता है जिसमें राजभाषा कार्यान्वयन के विभिन्न लक्ष्यों को दर्शाया गया होता है। इस बैठक में चर्चा करने के लिए सामान्यतया निम्नलिखित मदें कार्यसूची में उल्लिखित होती हैं :

1. पिछली बैठक के कार्यवृत्त की पुष्टि (इस मद में पिछली बैठक में लिए गए निर्णयों की समीक्षा की जाती है तथा उपलब्धियों को समिति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तथा यदि किसी लिए गए निर्णय पर कार्रवाई नहीं की जा सकी हो तो उसका कारण समिति को बतलाया जाता है। पिछली बैठक के निर्णयों पर कृत कार्रवाई पर संतुष्ट हो जाने के बाद समिति उस कार्यवृत्त को पारित कर देती है। यदि किसी निर्णय पर कृत कार्रवाई से समिति संतुष्ट ना हो तो उस मद को पुन: उस मद को चर्चा हेतु कार्यसूची में शामिल किया जाता है।

2. कार्यालय के विभागों द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन (इस मद में कार्यालय के सभी विभागों के राजभाषा कार्यान्वयन की समीक्षा की जाती है। समीक्षा का आधार वार्षिक कार्यक्रम के विभिन्न लक्ष्य होते हैं।

3. कार्यालय के अधीन शाखाओं के राजभाषा कार्यान्वयन की समीक्षा (इस मद में भी वार्षिक कार्यान्वयन के विभिन्न लक्ष्यों के अनुरूप समीक्षा होती है।

4. गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, प्रधान कार्यालय और संबंधित मंत्रालय से प्राप्त महत्वपूर्ण पत्र, परिपत्र आदि की चर्चा (इन महत्वपूर्ण पत्रों, परिपत्रों आदि से समिति को अवगत कराया जाता है तथा आवश्यकतानुसार समिति से दिशानिर्देश आदि प्राप्त किया जाता है।

5. अध्यक्ष की अनुमति से कोई अन्य विषय (इस मद से समिति के सदस्यों को अपनी बात रखने में सुविधा होती है। बैठक के कार्यसूची में कोई मद सम्मिलित न हो और किसी सदस्य को लगे कि उस मद पर समिति में चर्चा आवश्यक है तो अध्यक्ष की अनुमति से सदस्य अपनी बात रख सकता है।)

उक्त आधार पर यह समिति अपने क्षेत्राधिकार के प्रत्येक कार्यालय और शाखा आदि की समीक्षा कर लेती है। आवश्यकतानुसार उक्त कार्यसूची में नए मद जोड़े जाते हैं। उक्त मदों की चर्चाएं कार्यालय या शाखा के हिंदी की तिमाही रिपोर्ट के आंकड़ों तथा जॉच बिन्दु के अन्य आधारों पर होती हैं। समिति राजभाषा की उपलब्घि पर चर्चा कर उसमें वृद्धि के अवसरों, उपायों, प्रयासों आदि पर चर्चा करती है, असफलताओं पर चर्चा कर उसकी त्रुटियों, कमज़ोरियों आदि को दूर करने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम बनाती है। ऐसी स्थिति में अकसर राजभाषा अधिकारी स्वंय को आगे रखने का प्रयास करता है जिससे राजभाषा कार्यान्वयन पीछे चली जाती है परिणामस्वरूप समिति को वस्तुस्थिति की जानकारी नहीं मिल पाती है।

राजभाषा अधिकारी : इस मद में राजभाषा अधिकारी की सजगता, सतर्कता और समर्थता की अत्यधिक आवश्यकता होती है। पिछली बैठक के कार्यवृत्त की पुष्टि करते समय यदि सदस्य-सचिव (राजभाषा अधिकारी)  समिति के समक्ष केवल सकारात्मक पक्ष और उपलब्धियों की प्रस्तुति करेगा तो राजभाषा कार्यान्वयन का यह एक ही पक्ष प्रस्तुत कर पाएगा। वस्तुत: अधिकांश राजभाषा अधिकारी श्यामल पक्ष को छुपाने की कोशिश करते हैं। राजभाषा अधिकारी अपनी वाह-वाही के लालच में यहॉ स्वार्थी नज़र आता है।

प्रश्न4- इस बैटक के कार्यवृत्त का क्या महत्व है ?

इस बैठक के कार्यवृत्त का सर्वप्रथम महत्व यह है कि इससे बैठक के संपूर्ण कार्यवाही की जानकारी मिलती है। बैठक में अनुपालनार्थ लिए गए निर्णयों का यह एक प्रामाणिक दस्तावेज होता है। एक अधिकृत दस्तावेज़ होता है। समिति की आगामी बैठक में कार्यवृत्त की पुष्टि में उपयोग में आता है। यह बैठक की मदवार, क्रमवार कार्यवाही अनुसार सदस्य-सचिव द्वारा लिखा जाता है जिसमें महत्वपूर्ण चर्चाएं, निर्णय, चर्चा में भाग लेनेवाले/ पहल करनेवाले सदस्यों आदि का नाम,पदनाम होता है अर्थात संपूर्ण बैठक का यह शाब्दिक आईना होता है। इसे विभिन्न कार्यालयों आदि में प्रेषित किया जाता है।

राजभाषा अधिकारी: कार्यवृत्त लिखना एक कौशल है। कुशल राजभाषा अधिकारी बैठक की संपूर्ण कार्रवाई को क्रमबद्ध, लयबद्ध और सारबद्ध रूप में लिखता है जो पठन में रूचिकर और आकर्षक लगता है। यदि इसे लिखते समय सदस्य-सचिव ने कुशलता नहीं दिखली तो यह एकरसता के संग उबाऊ लगता है तथा पढ़नेवाला बैठक के महत्वपूर्ण पक्षों को बखूबी नहीं समझ पाता परिणामस्वरूप राजभाषा कार्यान्वयन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

अंत में : राजभाषा कार्यान्वयन समिति और राजभाषा अधिकारी का अटूट पारस्परिक रिश्ता है। यदि यह समिति सशक्त है तो राजभाषा अधिकारी सशक्त है। यदि राजभाषा अधिकारी परिणामदाई है तो यह समिति परिणाम देनेवाली है। यदि राजभाषा अधिकारी अपने कार्य में प्रभावशाली है तो यह समिति भी प्रभावशाली है। किसी भी कार्यालय के राजभाषा कार्यान्वयन की स्थिति की झलक या तो राजभाषा कार्यान्वयन समिति के कार्यवृत्त से देखी जा सकती है अथवा राजभाषा अधिकारी से मिलकर इसका अनुभव किया जा सकता है। वर्तमान का सत्य यह है कि अधिकांश कार्यालयों में यह समिति एक औपचारिकता बन कर रह गई है।

धीरेन्द्र सिंह.









































मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

राजभाषा ब्लॉगिंग

हिंदी की तमाम विधाओं पर नित नए ब्लॉगर आ रहे हैं तथा इसे सशक्त और प्रभावशाली बनाने में अपना योगदान कर रहे हैं। हिंदी की एक विधा राजभाषा के ब्लॉगरों की और देखें तो ढूंढने पर भी अंगुलियों पर गिनने वाले बहुत कम ब्लॉगर मिलते हैं। यह स्थिति क्यों है यह एक विचारणीय मुद्दा है। यहॉ यह तर्क भी सही नहीं ठहरता है कि राजभाषा से जुड़े लोग ब्लॉगिंग में रूचि नहीं लेते हैं बल्कि राजभाषा से जुड़े अधिकांश लोग ब्लॉग को नियमित रूचिपूर्वक पढ़ते हैं। इनमे से कई ब्लॉगिंग में सक्रिय भी हैं परन्तु राजभाषा जैसे विषय पर नहीं लिखते हैं। राजभाषा के अधिकांश ब्लॉग सिर्फ नाम के लिए हैं। यह स्थिति चिंताजनक है। यदि इस उदासीनता का विश्लेषण किया जाए तो यह संभावना उभरती है कि अधिकांश राजभाषा ब्लॉगर यही नहीं तय कर पाते कि इसमें लिखा क्या जाए। इस सोच का प्रमुख कारण यह है कि अधिकांश कथित राजभाषा ब्लॉगर हिंदी साहित्य की पृष्ठभूमि वाले होते हैं तथा हिंदी साहित्य के तार को राजभाषा से कुशलतापूर्वक जोड़ नहीं पाते हैं। शायद यही कारण है कि यह लोग जितनी सहजता से कविता, कहानी आदि लिख पाते हैं उतनी आसानी से राजभाषा पर नहीं लिख पाते हैं।

राजभाषा ब्लॉगिंग से जुड़े सभी ब्लॉगर राजभाषा कार्यान्वयन से सीधे जुड़े हुए हैं तथा राजभाषा उनके दैनिक कार्य का एक प्रमुख अंग है इसके बाद भी राजभाषा ब्लॉगिंग की वर्तमान दयनीय स्थिति अच्छे भविष्य की और ईशारा नहीं कर कर रही है। राजभाषा ब्लॉगरों में से कोई भी पॉच नाम लेने के लिए यदि आपसे कहा जाए तो शायद आप भी उलझन में पड़ जाएंगे। यदि राजभाषा के बारे में स्वतंत्र चिंतन, समीक्षा आदि नहीं की जाएगी तो कैसे इस विधा को और विकसित किया जा सकेगा . सरकारी कामकाज में हिंदी की उपयोगिता का दायित्व आखिर कार्यालय के राजभाषा या हिंदी विभाग का नहीं है और ना ही इसका विकास कार्यालय की परिधि के अंतर्गत ही किया जा सकता है अतएव यह आवश्यक है कि राजभाषा ब्लॉगर राजभाषा को लेकर खुले में आएं और नई दिशा और दसा से राजभाषा को संपन्न करें। ब्लॉगिंग जगत में राजभाषा अभी भी अपना कोई पहचान नहीं बना सकी है।

राजभाषा से जुड़े लोग हिंदी ब्लॉगिंग की अन्य विधाओं में सक्रिय हैं किंतु राजभाषा विषय पर सक्रिय ना होना एक उदासीनता के अलावा कुछ भी नहीं है। इस उदासीनता का प्रमुख कारण यह हो सकता है कि राजभाषा कार्यान्वयन की व्यस्तताओं से थक कर यह लोग हिंदी की अन्य विधाओं में रूचि लेते हों जिसका प्रभाव राजभाषा ब्लॉगिंग पर पड़ता हो। यह भी कारण हो सकता है कि राजभाषा कार्यान्वयन उनके लिए सिर्फ एक जीवनयापन का ज़रिया हो जिसके साथ उनका एक बेहद औपचारिक रिश्ता हो। अन्यथा 15-20 वर्षों से भी अधिक समय से राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े रहने के बावजूद राजभाषा पर लिखने के लिए कुछ ना हो यह कैसे संभव हो सकता है। राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े लोग विशेषज्ञ के रूप में जाने-माने-पहचाने जाते है और यह कैसी विशेषज्ञता जो कविताएं तो लिख सकती है, कहानियॉ लिख सकती है परन्तु राजभाषा पर कुछ नहीं लिखती अलबत्ता बोलती ज़रूर है राजभाषा की बैठकों में, खालिस दफ्तरी परिवेश में, राजभाषा के सुपरिचित शब्दों से खेलते हुए।

राजभाषा को कार्यालयीन परिवेश से बाहर लाने के लिए विभिन्न कार्यालयों की गृह पत्रिकाओं में लिखा अवश्य जाता है परन्तु उस पर ना तो चर्चा होती है और ना ही सामान्य जनों की उन्मुक्त समीक्षा प्राप्त होती है। ऐसी स्थिति में राजभाषा से जुड़े लोगों को चाहिए कि ब्लॉग पर राजभाषा के बारे में लिखें तथा पाप्त विचारों के अनुसार यथायोग्य राजभाषा कार्यान्वयन की शैली में परिवर्तन-परिवर्धन करें। हिंदी ब्लॉगिंग में समाज के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिभाएं हैं जिनकी राजभाषा विषयक सोच केवल कार्यालय के राजभाषा कार्यान्वयन के लिए ही नहीं सहायक होगी बल्कि जनसामान्य में भी राजभाषा की नव चेतना जागृत करने में भी प्रमुख भूमिका निभाएगी। राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े ब्लॉगरों से अनुरोध है कि इस दिशा में अत्यधिक सक्रिय हो जाएं क्यॆकि इस समय राजभाषा की यह भी एक मांग है।

धीरेन्द्र सिंह 





शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

हिंदी प्रशिक्षण को मोहताज राजभाषा अधिकारी

भारत सरकार की राजभाषा नीति के अंतर्गत सभी केन्द्रीय कार्यालयों, उपक्रमों, बैंकों में राजभाषा विभाग की स्थापना की गई है तथा इस विभाग के कार्यों के लिए राजभाषा अधिकारी की नियुक्ति की गई है। विगत 25-30 वर्षों से राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े इन राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा कार्यान्वयन विषयक सार्थक और व्यापक प्रशिक्षण प्रदान नहीं किया गया है। सार्थक प्रशिक्षण अर्थात वह प्रशिक्षण जिससे राजभाषा अधिकार को राजभाषा कार्यान्वयन के लिए आधुनिकतम जानकारियॉ तथा ज्ञान प्राप्त हो जाए। व्यापक प्रशिक्षण का मतलब वह व्यापकता प्राप्त हो जिसकी सहायता से सुगमतापूर्वक राजभाषा कार्यान्वयन किया जा सके। इस प्रकार सार्थक और व्यापक प्रशिक्षण द्वारा राजभाषा अधिकारी को आत्मबल प्राप्त हो, आत्मविश्वास प्राप्त हो, स्पष्ट लक्ष्य हों, लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आवश्यक कौशल हो, समय-समय पर स्वाभाविक रूप से उठने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की क्षमता हो। इस तरह का प्रशिक्षण राजभाषा अधिकारियों को नहीं मिल पाता है परिणामस्वरूप अपेक्षित प्रभावशाली परिणाम नहीं मिल पाता है। राजभाषा कार्यान्वयन की यह एक प्रमुख समस्या है।

इस विषय पर चर्चा करते हुए प्रमुख प्रश्न यह है कि किन आधारों पर यह कहा जा सकता है कि राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा का उचित प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है ? इसके लिए बहुत गहराई में उतरने की आवश्यकता नहीं है बल्कि यहॉ वह कहावत चरितार्थ होती है कि-हॉथ कंगन को आरसी क्या। यदि राजभाषा अधिकारियों को उचित प्रशिक्षण प्राप्त होता तो राजभाषा कार्यान्वयन अपनी प्रगति की गवाही कागजी आंकड़ों के बजाए व्यवहार में निरंतर प्रगति करते राजभाषा के जीवंत साक्ष्य द्वारा स्पष्ट करती। आज किसी भी कार्यालय में जाने पर कुछ विभागों या टेबलों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उस कार्यालय में राजभाषा कार्यान्वयन अपेक्षित स्तर पर है। इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए दिए जानेवाले आंकड़ों के आधार पर राजभाषा दौड़ रही है और राजभाषा अधिकारी नेपथ्य में गुमशुदा सा प्रतीत हो रहा है। वर्तमान में राजभाषा अधिकारियों को यह ज्ञात ही नहीं है कि वह अपने कार्यों को कहॉ से और कैसे आरंभ करें। विभिन्न सरकारी कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन अपने कठिनतम दौर से गुजर रही है। इस चुनौतीपूर्ण समय में राजभाषा अधिकारियों को एक सार्थक और व्यापक प्रशिक्षण की अत्यधिक आवश्यकता है।

मोहताज शब्द का प्रयोग करना आवश्यक था इसलिए यहॉ इस शब्द को वाक्य नें गूंथा गया है जबकि एक पक्ष यह भी कहनेवाला है कि राजभाषा अधिकारियों को तो प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इस प्रकार के प्रदान किए जानेवाले प्रशिक्षण कितने उपयोगी होते हैं इसकी यदि समीक्षा की जाए तो दूघ का दूध पानी का पानी साफ नज़र आएगा। मोहताज केवल इसलिए ही नहीं कि इन्हें प्रशिक्षण नहीं मिलता है बल्कि मोहताज इसलिए भी हैं कि राजभाषा अधिकारियों के प्रशिक्षण की एक आदर्श रूप-रेखा तथा सक्षम संकाय की भी कमी है। इसके लिए सभी कार्यालयों को एक निर्धारित कार्यक्रम बनाकर अपने प्रशिक्षण कार्यक्रम में एक स्लॉट के रूप में इसे जोड़ना होगा, तब कहीं जाकर इस दिशा में एक परिणामदाई पहल होगी। राजभाषा अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए अभी तक किसी भी कार्यालय द्वारा एक ठोस रूप-रेखा नहीं बनाई गई है अतएव इस दिशा में पहल करने की आवश्यकता है। जब तक यह अभाव समाप्त नहीं होगा तब तक मोहताज शब्द एक पहल की आवश्यकता का संकेत देते रहेगा।

राजभाषा अधिकारियों को हिंदी का विशेषज्ञ माना जाता है तथा सामान्यतया यह सोचा जाता है कि जो विशेषज्ञ है उसको उसकी विशिष्टता के क्षेत्र में क्या प्रशिक्षण दिया जाए। यह सोच इस तथ्य को अनदेखा कर देती है कि हिंदी और राजभाषा हिंदी में कुछ फर्क भी है। राजभाषा कार्यान्वयन के लिए सरकारी नीतियों के अतिरिक्त राजभाषा अधिकारी को राजभाषा के क्षेत्र में अन्य विधाओं में भी पारंगत होना पड़ता है जिसमें है अनुवाद, सम्प्रेषण, अभिव्यक्ति, लेखन, भाषण कौशल, आयोजन, कर्मचारियों की मानसिकता के अनुरूप कार्यान्वयन की शैलियों में बदलाव आदि। इन सबका सीधा संबंध राजभाषा कार्यान्वयन से होना चाहिए। प्रशिक्षण सामग्री भी अत्यावश्यक है। यद्यपि राजभाषा अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण सामग्री तैयार करना एक शोध करने जैसा कार्य है फिर भी यह है तो बहुत ज़रूरी। यह सामग्री भी विभिन्न कार्यालय अपने प्रशिक्षण महाविद्यालय में तैयार करा सकते हैं। विशेषज्ञों को भी प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है अन्यथा उनके कौशल में ठहराव आ जाने का भय रहता है।

कठिन नहीं है यह कार्य आवश्यकता बस निर्णय लेने की है। यहॉ प्रश्न उठता है कि कौन लेगा यह निर्णय ? यह निर्णय विभिन्न कार्यालयों के प्रधान कार्यालय / मुख्यालय के राजभाषा विभाग को लेना होगा। इस कार्यक्रम के विषय, समय-सारिणी, प्रशिक्षण सामग्री, संकाय आदि की व्यवस्था राजभाषा विभाग ही सहजतापूर्वक कर सकता है। राजभाषा अधिकारियों की सहायता राजभाषा अधिकारी ही कर सकता है। विभिन्न कार्यालय के शीर्ष प्रबंधन का राजभाषा कार्यान्वयन के लिए सहयोग, दिशानिर्देश आदि हमेशा से मिलते आ रहा है इसलिए यहॉ किसी प्रकार की कठिनाई नहीं है। राजभाषा अधिकारियों को प्रशिक्षण वर्तमान की आवश्यकता है किन्तु आरम्भ में चुनौतीपूर्ण है। इस दिशा में पहल राजभाषा कार्यान्वयन के एक नए सोपान की रचना करेगी जिसकी प्रतीक्षा वर्तमान भी कर रहा है।

धीरेन्द्र सिंह.



मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

महिला दिवस और राजभाषा

मेरे मन में भी महिला दिवस और राजभाषा विचार कौंधा था तब मैं भी आपकी ही तरह आश्चर्यचकित हुआ था। आख़िरकार इस महिला दिवस पर मैं क्या लिखूँ यह सवाल तो मेरे सामने खड़ा ही था। ना जाने क्यों यह विषय मुझे नया, आकर्षक और चुनौतीपूर्ण लगा। अब आप यह मत कहिएगा कि महिला शब्द ही चुनौतीपूर्ण है इसलिए मैंने कौन सी नई बात कह दी। बात जब कहनी होती है तो एक अंदाज़ में कह दी जाती है। आख़िर अंदाज़ ही तो है जो भावों और विचारों के हिचकोलों से बात की रक्षा करता है, उसकी गरिमा को बनाए रखता है। वरना आज की दुनिया में गरिमा बनाए रखने की बात तो दूर गरिमा शब्द से परिचित होना ही मुश्किल है। गरिमा का किसी व्यक्ति विशेष या महज़ एक नाम से जुड़ जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। वैसे महिला का राजभाषा से जुड़ जाने का खतरा भी खतरा कम नहीं है। कहॉ सीधी, सरल, निर्मल मना महिला और कहॉ पहाड़ी नदी की तरह अनजानी डगर पर भी अपनी गति को बनाए रखनेवाली राजभाषा। कहीं ताल-मेल नहीं दिखता है। पर आधुनिक महिला तो विषम परिस्थितियों से दो-दो हॉथ करने में कहॉ पीछे हैं तो मैंने भी सोचा कि क्यों न महिलाओं से राजभाषा के बारे में थोड़ी चर्चा कर उनके मिज़ाज का ज़ायजा लिया जाए।


अपनी मंज़िल पर लिफ्ट की प्रतीक्षा में खड़ी एक महिला से मैं जा टकराया। मुसकराहट के आदान-प्रदान के बाद मैंने कुछ औपचारिक बातों के बाद अपना सवाल पूछ ही बैठा-मैडम आप केन्द्र की राजभाषा के बारे में क्या जानती हैं ? उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने नासमझी भरा सवाल कर दिया हो। पल भर में ही यह प्रमाणित भी हो गया कि अपने बारे में उस समय की मेरी सोच सही थी। उन्होंने कहा कि राजभाषा के बारे में तो बच्चा-बच्चा जानता है। श्री राज ठाकरे की पार्टी द्वारा मराठी भाषा का मुंबई में हर जगह प्रयोग ही राजभाषा है। मैं हतप्रभ रह गया और घबराहट से घिर गया। राजभाषा में राजनीति कैसी ? यह सोचते हुए मैं अपने भावों पर नियंत्रण ना रख सका और अगला प्रश्न पूछ दिया कि राजभाषा और राजनीति से क्या लेना-देना ? उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि राजनीति और राजभाषा एक ही सिक्के के दो महत्वपूर्ण पक्ष है। एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं। मैं आगे कुछ बोल पाता उससे पहले लिफ्ट तल मंज़िल पर रूकी और वो चली गईं। मैंने केन्द्र की राजभाषा के बारे में पूछा और वे राज्य के दायरे में लाकर मेरे प्रश्न को छोड़ गईँ। राजभाषा को किसी व्यक्ति और किसी पार्टी से क्यों जोड़ गईं ? मैं सोचता ही रह गया। अब किसी महिला से प्रश्न पूछने की स्थिति में नहीं था अतएव कल पर छोड़ अपनी सोच में डूबा मैं चलता गया।


सुबह घर से ही तय करके निकला था किसी ऐसी महिला से प्रश्न करूँगा जिसे बहुत जल्दी ना हो और जो मुझे थोड़ा समय दे सके। विश्वविद्यालय की कैंटीन में जब मैं चाय पीने गया था तो कैंटीन के कोने में एक महिला चाय पीते दिखी और मैं बेधड़क जाकर औपचारिकताऍ निभाते हुए बैठ गया। बिना कोई अन्य वार्ता किए मैं पूछ बैठा कि – मैडम केन्द्र की राजभाषा से आप क्या समझती हैं ? प्रश्न समाप्त होते ही उन्होंने तपाक से उत्तर दिया – इंग्लिश। आश्चर्य से मैंने पूछा-वह कैसे ? उनका उत्तर था कि प्रत्येक सरकारी कार्यक्रमों में अंग्रेज़ी में बातचीत, वित्तीय मंच पर अंग्रेज़ी, विदेशों में जाकर अंग्रेज़ी का ही प्रयोग, हिंदी की रोटी खानेवाले बॉलीवुड के कार्यक्रमों में निमंत्रण से लेकर समापन तक अंग्रेज़ी ही अंग्रेजी। चारों तरफ अंग्रेजी ही दिखती है इसलिए जनता अंग्रेजी को ही राजभाषा कहती है। मैं लाजवाब हो गया। अबकी बार महिला नहीं उठी, मैं ही उठ कर चल दिया।


मेरे मन की न तो जिज्ञासा शांत हुई और न उत्सुकता। मैं तो अपने ढंग से महिला दिवस मनाने पर आमादा जो था। एक गम्भीर सी दिखनेवाली महिला से मैंने जब यही प्रश्न पूछा तो उत्तर तपाक से मिला – टाईम पास। अच्छे से अच्छे चिंतन-मनन वाला मस्तिष्क भी इस उत्तर से लड़खड़ा जाएगा यही सोचकर मैं भी हतप्रभ रह गया। मैडम आपने तो अजीब सा उत्तर दे दिया, मैं तो इसका ओर-छोर ही नहीं पकड़ पा रहा, कृपया कुछ स्पष्ट कीजिए। उन्होंने कहा कि राजभाषा कार्यालयों से जुड़ी है, कार्यालयों में राजभाषा विभाग पर राजभाषा कार्यान्वयन की जिम्मेदारी है, राजभाषा विभाग में राजभाषा अधिकारी रहते हैं और राजभाषा अधिकारी टाइम पास करते हैं इसलिए राजभाषा टाइम पास है। मैंने कहा मैडम यह तो विचार कम और आरोप अधिक लग रहा है। उन्होंने ने कहा कि आप के मन में यदि ऐसे विचार उत्पन्न हो रहे हैं तो पहले आप किसी कार्यालय के राजभाषा विभाग की गतिविधियों को गौर से देखिए फिर इस विषय पर मुझसे चर्चा कीजिए। राजभाषा के इस नए अंदाज को समझते हुए मैंने यह तय कर लिया कि अब बस मना लिया मैंने महिला दिवस को, इससे अधिक की क्षमता मुझमें नहीं रह गई थी। महिला दिवस और राजभाषा यह संगम एक ऐसे भँवर की और ले गया जिसमें मंथन की कभी न रूकने वाली प्रक्रिया थी और परिणाम की संभावना नज़र नहीं आ रही थी।


धीरेन्द्र सिंह.

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

हमारी हिंदी

हमारी हिंदी



हमने जब से हिंदी को, हमारा बना दिया

हिंदी को धारा का एक, किनारा बना दिया

दुनिया सिमट रही है, एक गॉव की तरह

हिंदी को भावों का, एक ईशारा बना दिया।


बस ऐसे ही चलती है हिंदी, कभी हिंदी चित्रपट पर, कभी दूरदर्शन के चैनलों पर, कभी गीतों-गज़लों में, कभी बाज़ार से सामान्य खरीददारी आदि में। हिंदी विशेषकर इसी रूपों में हमारी है और हमें इसके रूप पर नाज़ भी है। दुनिया के उन्नत देशों की भाषाएँ हिंदी की तरह अपनी लोकप्रियता बनाए रखते हुए सरकारी कामकाज, उच्च शिक्षा, प्रौद्योगिकी आदि में अपनी प्रगति और लोकप्रियता को बनाए हुए है। क्या हिंदी इस रूप में आज हमारे सामने है ? जिस हिंदी को हम अपनी हिंदी के रूप में अपनाए हुए हैं क्या उसका अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप है ? अंतर्राष्ट्रीय ना सही क्या वर्तमान में हिंदी का एक सशक्त राष्ट्रीय स्वरूप है? हमने हिंदी को गानों, बजानों और दुकानों तक ही समेट कर रख दिया है। भारतीय कार्यालयों के टेबल अब भी तो अंग्रेज़ी से ही जुड़े हुए हैं और हमारी आदतें भी। दैनिक समाचार पत्र हो, एसएमएस हो, किसी लिफाफे पर पता लिखना हो अथवा छुट्टी की अर्जी देनी हो, हमेशा अंग्रेजी ही लिखी जाती है। लिखते वक्त हमारी हिंदी ना जाने कितनी दूर होती है और अंग्रेज़ी अपनी लगती है।

वर्तमान भारतीय एक विडंबना में जी रहे हैं। उनके दिल में हिंदी है और व्यवहार में अंग्रेज़ी है। हिंदी जहॉ अहसासों को सुखद बनाती है वहीं अंग्रेज़ी व्यावहारिक जगत में एक आत्मविश्वास के साथ चलने का आधार प्रदान करती लगती है। यह व्यावहारिकता भारतीय परिवेश पर बरसाती बादलों की तरह छाया हुआ है और अक्सर बरसते रहता है। अक्सर बरसते रहता है से मेरा तात्पर्य है कि जहॉ भी आप शीर्ष के कार्यक्रमों में जाऍ अंग्रेज़ी के फुहारों से भींगना ही पड़ता है। शायद हम इस बारिश के अभ्यस्त भी हो गए हैं। इसे सहजता से लेते हैं। इसका विरोध करना अब हमें अस्वाभाविक प्रक्रिया लगती है। यहॉ एक प्रश्न उठता है कि विरोध क्यों ? वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांतों पर चलनेवाला हमारा देश भला विरोध क्यों करे ? जो भी हमारे यहॉ आता है उसे हम अपना बना लेते हैं. यह एक तरफ से हमारे विशाल हृदय को दर्शाता है जबकि दूसरी और यह भी संभावना प्रकट करता है कि कहीं हम इस विशालता में अपना कुछ खो तो नहीं रहे। कुछ खो कर कुछ पाना हमेशा स्वीकार्य नहीं होता। तो क्या हम अंग्रेजी को अपनाते हुए कहीं हमारी हिंदी को खो तो नहीं रहे ?

हमारी हिंदी-हमारी हिंदी का यह रट क्यों लगाया जा रहा है। व्यवहार के लिए एक भाषा होनी चाहिए बस। भाषा की भूमिका तो यहीं तक है। गानों, बजानों तथा दुकानों तक तो हिंदी है ना तो क्या यह एक सुखद स्थिति नहीं है ? भारतीय दिलों में तो हिंदी है ना तो क्या यह संतोषप्रद स्थिति नहीं है ? क्यों अंग्रेज़ी के पीछे पडा जा रहा है। यह देखने की कोशिश क्यों नहीं की जाती कि कहीं हिंदी की कमज़ोरी की वजह से तो अंग्रेज़ी आगे नहीं निकल गई ? इस तरह से प्रश्न करनेवालों से एक प्रश्न पूछना आवश्यक है कि भाषा को वह क्या समझते हैं ? केवल सम्प्रेषण का माध्यम या कुछ और ? वर्तमान में विश्व जब एक कुटुंब की तरह होते जा रहा है तो क्या ऐसी स्थिति में हमारी कोई एक राष्ट्रभाषा नहीं होनी चाहिए।

हमारी हिंदी सिर्फ देवनागरी में लिखी जानेवाली हिंदी ही नहीं है बल्कि भारत की विभिन्न भाषाओं के आपसी ताल-मेल का प्रतीक है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की ध्वजवाहिका है जिसके संग भारत की अन्य भाषाऍ भी हैं। हिंदी का विकास सभी भारतीय भाषाओं का विकास है। समूचे राष्ट्र की धड़कनों को एक सूत्र में बांधने के लिए एक भाषा की आवश्यकता है और हमारी हिंदी इसमें सक्षम है। हमारी हिंदी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तब तक पूरी हमारी नहीं हो सकती जब तक भारत की सभी भाषाओं को विकास के समान अवसर नहीं मिलते हैं। पर क्या आप लोगों को यह लग रहा है कि सभी भारतीय भाषाओं को विकास के समान अवसर मिल पाऍगे ? इतन् प्रयासों के बावजूद भी जब हिंदी आपकी टेबल का रोज का हिस्सा नहीं बन सकी है तब अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक इसे ले जाने की तमन्ना एक ख्वाब सा लगता है। कार्यालयों में कार्य करनेवाले अधिकांशत: कर्मचारी कोर्योलय के दूसरे कर्मचारियों का अनुकरण करते हैं। लोग अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हैं इसलिए हम भी अंग्रेजी का प्रयोग करेंगे। कल से हिंदी का लोग प्रयोग करने लगें तो टेबल का सारा काम हिंदी में ही होगा। समस्या मानसिकता की है। कठिनाई चलन से अलग ना हो पाने की है।

कहीं ना कहीं से हमें किसी भारतीय भाषा को संग लेकर आरम्भ करना पड़ेगा। राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को देश की राजभाषा का दर्ज़ा मिल चुका है परन्तु उसका विकास करना हम सब कार्यालय कर्मियों का दायित्व है। हिंदी का विकास देश के सभी भाषाओं का विकास है। वर्तमान में प्रत्येक कार्यालय में हिंदी या राजभा, के विपुल साहित्य पड़े हैं जिनका पूरा उपयोग नहीं किया जा रहा है। प्रत्येक कार्यालय हिंदी के छोटे से पत्र के लिए भी कार्यालय के हिंदी विभाग या राजभाषा विभाग की और देखता है। हमारी हिंदी आज कार्यालयों में हिंदी विभाग पर टिकी हुई है यह कहना कोई गलत नहीं होगा। भाषा को दृष्टिगत रखते हुए जब तक हम नहीं जागेंगे तब तक कार्यालय नहीं जगेगा, जब तक कार्यालय नहीं जगेगा तब तक समाज नहीं जगेगा और जब तक समाज नहीं जगेगा तब तक देश का प्रतिनिधित्व करनेवाली हमारी हिंदी और सशक्त नहीं होगी अतएव हमारी हिंदी हमारे ही हॉथों में है। हमारे हॉथों से विकसित हुई हिंदी विश्वपटल पर जाए इसके लिए भगीरथ प्रयास अपेक्षित है।












मंगलवार, 24 नवंबर 2009

मराठी अस्मिता और भारतीय भाषाऍ

भाषा के लिए सुर्खियों में रहनेवाला महानगर मुंबई संभवत: एकमात्र महानगर है जो वर्षों से मराठी अस्मिता की बातें कर रहा है, संघर्ष कर रहा है। यह केवल कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसे मराठी भाषियों का समर्थन भी प्राप्त है। यदि मैं कहूँ कि कुछ प्रतिशत गैर मराठियों का भी समर्थन प्राप्त है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मराठी अस्मिता किसी व्यक्ति विशेष अथवा समूह विशेष द्वारा उछाला गया मुद्दा नहीं है बल्कि यह मराठी भाषी जनसामान्य की सोच है अतएव इस मुद्दे को जनाधार प्राप्त है। दुकान के नाम पट्ट को देवनागरी में लिखना एक आरम्भिक अभियान है जो प्रदर्शन में देवनागरी लिपि तथा मराठी भाषा के परिचय और प्रयोग का प्रथम चरण है। चूँकि यह एक जनआंदोलन है इसलिए इसमें एक चिंतन है, एक लक्ष्य है। मराठी अस्मिता को केवल स्थानीय समस्या मानकर चलना एक भूल होगी।



क्या है मराठी अस्मिता ? क्या यह केवल मराठी भाषा और मराठी भाषियों के हितों से जुड़ा हुआ मुद्दा है या कुछ और ? यहॉ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस आंदोलन में मुझे एक स्वाभिवकता नज़र आती है न कि राजनीति अतएव मराठी अस्मिता के इस आंदोलन में राजनीतिक महात्वाकांछाऍ नहीं हैं। भारत देश की आर्थिक राजधानी कही जानेवाली मुंबई विश्व के स्पंदनों का बखूबी अहसास करती है। इन स्पंदनों में यदि कोई स्पंदन मुखर है तो वह है भूमंडलीकरण। सूचनाओं, व्यवसायों, सांस्कृतिक प्रभावों आदि के बीच आज प्रत्येक राष्ट्र की प्रमुख समस्या अपनी पहचान को बनाए रखना हो गई है। यह पहचान बनाए रखने के लिए अन्य देशों के प्रभाव से बचना भी बहुत आवश्यक है। स्वंय की पहचान को बनाए रखना और उसे बचाए रखना एक प्रमुख समस्या है जिसका समाधान कहीं और नहीं प्रत्येक राष्ट्र की अपनी संस्कृति और भाषा में छुपा है। महाराष्ट्र की संस्कृति और मराठी भाषा को बचाए रखना, बसाए रखना और विकसित करते रहना ही मराठी अस्मिता है।



भारत देश का एक प्रमुख महानगर तथा वित्तीय राजधानी होने के कारण मुंबई बहुभाषी तथा बहुसंस्कृतिक है जहॉ पर कई भारतीय तथा कुछ विदेशी भाषाऍ पुष्पित तथा पल्लवित हो रही हैं। ऐसी स्थिति में यदि मराठी भाषा का आकलन किया जाए तो उसमें गिरावट नज़र आती है जो निश्चय ही चिन्ता का विषय है। कुछ वर्ष पहले तक मराठी रंगमंच अपनी लोकप्रियता के ऊँचे पायदान पर था लेकिन अब वह पायदान नहीं है। मराठी भाषी विद्यार्थी हमेशा 10 वीं तथा 12वीं कक्षा में महाराष्ट्र राज्य में प्रथम आते हैं फिर भी मराठी माध्यम के विद्यालय बंद होते जा रहे हैं। योग्यता के मानदंड में मराठी भाषा को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जाता रहा है। महाराष्ट्र राज्य में दुकान, फर्म, प्रतिष्ठान आदि खोलकर राज्य की भाषा में बोर्ड आदि प्रदर्शित न करना स्थानीय भाषा को नकारने का संकेत देता है। एक उन्नत राज्य होने के कारण मराठी भाषा की बातें जोर-शोर से करना महाराष्ट्र के प्रबुद्ध समाज की एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही कही जाएगी।





यदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो मुंबई से मराठी अस्मिता की उठती हुई आवाज़ केवल मराठी तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह अन्य भारतीय भाषाओं को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है। मराठी भाषा के प्रचार-प्रसार के अभियान से हिंदी को सीधे फायदा हो रहा है। हिंदी तथा मराठी की लिपि देवनागरी होने के कारण लक्ष्य का केन्द्रबिन्दु देवनागरी लिपि है अतएव देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार से हिंदी को भी लाभ प्राप्त होगा। गुजराती भाषा की भी स्थिति लगभग ऐसी है। मराठी भाषा का प्रतिद्वंद्वी कोई भी भारतीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय भाषा नहीं है। इसकी प्रतिद्वद्विता महाराष्ट्र की भाषिक परिस्थितियों से है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा को महत्व मिले जिससे सर्वत्र मराठी भाषा दिखे, मराठी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों को नौकरी आदि में अपेक्षित स्थान मिले आदि। भारत के संविधान में भी भाषा विषयक व्यवस्था में संघ की राजभाषा हिंदी होने के साथ-साथ संविधान की आठवीं सूची में दर्ज़ सभी भाषाओं को महत्व देने का निर्देश है। भारतीय भाषाओं को एक नई पहचान देने में मराठी अस्मिता की चर्चाऍ और प्रयास अग्रणी भूमिका निभा रही है। भविष्य में संपूर्ण विश्व में भाषिक और सांस्कृतिक द्वंद की संभावना प्रतीत हो रही है।

धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 13 सितंबर 2009

हिंदी दिवस की आवश्यकता

हिंदी तेरे रूप अनेक पर सबसे चर्चित रूप है तेरा राजभाषा. आज तेरा जन्मदिन है और मेरी धड़कनें तुझे वैसे ही बधाई दे रही हैं जैसे एक पुत्र अपनी माँ को बधाई देता है, आर्शीवाद लेता है. आज बहुत खुश होगी तू तो, हो भी क्यों नहीं साहित्य, मीडिया, फिल्म, मंच से लेकर राजभाषा तक तेरा ही तो साम्राज्य है. अब तो प्रौद्योगिकी से भी तेरा गहरा रिश्ता हो गया है,. आज केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे संसार में तेरे जन्मदिवस को मनाया जायेगा, मैं भी मानाऊँगा खूब धूम-धाम से. तूने कितनों को मान दिया है, सम्मान दिया है, रोजी दी है, रोटी दी है , एक माँ की तरह तुझसे जो भी जुड़ा तूने बड़े जतन से उसे सहेजा है. मैं भी तो उनमें से एक हूँ. पत्रकारिता, अध्यापन, मंच से लेकर कार्यालय तक तेरे हर रूप को जीया हूँ, सच तुझसे बहुत सीखा हूँ. मेरी हार्दिक बधाई और नमन.

जानती है तू कि कुछ लोग तेरे जन्मदिवस को लेकर नाराज़ होते हैं. न-न वो तुझे दुत्कारते नहीं हैं बल्कि वे सब तुझसे बेहद गहरा प्यार करते हैं शायद मुझसे भी ज्यादा क्योंकि वो तुझे ज़रा सा भी कमजोर नहीं देख सकते. तेरे राजभाषा के रूप ने ही ऐसी हलचल मचा दी है. आज सैकड़ों विचार तुझ पर चिंतन मनन करेंगे और राजभाषा और राजभाषा अधिकारियों पर अपना दुःख बयां करेंगे. मुझे भी नहीं मालूम कि यह लोग कार्यालय में होनेवाले कार्यक्रमों में तुझे नहीं देख सकते. कितनी चतुराई और श्रम से तुझे राजभाषा के रूप के प्रतिष्ठित करने में कार्यालय के लोग लगे हैं.तू भी तो बड़ी सीधी है, कभी सरकारी कामकाज की भाषा बनी ही नहीं और देख न अंग्रेजी कितनी सशक्त हो गयी है सरकारी कामकाज में. तू तो अपनी शुद्धता के दायरे में बंधी रही या बाँधी गयी उधर अंग्रेजी ने दूसरी भाषाओँ से लपक-लपक कर शब्द लेकर खुद को बड़ा ज्ञानी बना बैठी. बता तू पहले से सोचती तो आज सरकारी कामकाज मैं तेरी भी बुलंदी रहती और फिर इतने दुखी और अति सवेदनशील लोग हिंदी दिवस पर अपने दुःख प्रकट न करते.

प्रत्येक कार्यालय में राजभाषा विभाग होता है और हिंदी या राजभाषा अधिकारी होता है. राजभाषा या हिंदी विभाग को कार्यालय को सारे विभागों के परिपत्र आदि का अनुवाद करना होता है. तू तो समझ सकती है न कि सरकारी कामकाज की भाषा ना रहने से तेरे पास कार्यालयीन कार्यों की शब्दावली पहले काफी कम थी. राजभाषा विभाग अकेले कैसे सारे विभागों के विषयों पर पकड़ बनाये रख सकता है, विभिन्न विषयों की शब्दावलियों के सहज रूप को ढाले रह सकता है, इसलिए विषय को पूरी तरह समझे बिना भी हिंदी अनुवाद कर देता है जिससे अस्वाभाविक शब्द आ जाते हैं और तू कठिन लगाने लगती है. तूझे तो मालूम है न कि राजभाषा विभाग को कार्यान्वयन भी करना पड़ता है और अनुवाद भी, प्रशिक्षण भी और तुझे सरल बनाने के लिए भी कर्मी राजभाषा विभाग से ही अपेक्षा रखते हैं. पर तू ना घबड़ा सब ठीक हो रहा है और ठीक हो जायेगा. अब कार्यालय में तेरे राजभाषा रूप को सब जानने-पहचानने और अपनाने लगे हैं और तुझे आसान करने का दौर शुरू हो गया है. लगभग 5 वर्षों में तेरा राजभाषा रूप लोकप्रिय हो जायेगा तब तक शिकवे-शिकायत को सुनती जा. कार्यालयों में जिस तेजी से तुझे स्वप्रेरित होकर अपनाया जा रहा है वब निकट भविष्य में तेरे एक नए और सरल रूप को जन्म देगा. हिंदी दिवस का आयोजन वर्तमान हिंदी कि आवश्यकता है और भविष्य का संकेत भी. आती रह ऐसे ही वर्ष दर वर्ष और राजभाषा रथ को प्रगति पत पर लिए जा. मेरे जैसे लाखों लोग समर्पित भावना से आपके साथ हैं.

धीरेन्द्र सिंह



शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

हिंदी दिवस पर अभिलाषा

हिंदी दिवस भाषा का तपिश भरा दिन होता है। प्रतिवर्ष प्रशंसाओं और आलोचनाओं आदि से परिपूर्ण यह दिन शाम होते होते चर्चाओं, प्रतिक्रियाओं आदि से थक कर निढाल हो जाता है। या यूँ भी कहा जा सकता है कि दिवस चेतनाशून्य हो जाता है। यह विचार केवल कुछ हिंदी दिवस की देन नहीं है बल्कि अनवरत यही सिलसिला चलते चला आ रहा है। भाषा की इस तपिश को हमारा देश देख रहा है, समझ रहा है तथा एक सार्थक और सकारात्मक परिवर्तन की बाट जोह रहा है। राजभाषा से जुड़े अधिकांश लोगों का ध्यान हिंदी दिवस पर तथाकथित राजभाषा हिंदी की ओर नहीं जा पाता है। अपनी-अपनी हिंदी दिवस की व्यस्तताओं के बीच थकी हुई सी राजभाषा की ओर देखने का समय कहॉ? कृपया इन चंद पंक्तियों से किसी कुंठा या नकारात्मक उर्जा की ओर न जांए,यह तो एक ऐसा दर्द है जिसे छुपा पाना असंभव है और यह किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति पा ही लेता है।

आख़िर हिंदी दिवस को शाम होते-होते राजभाषा थकी सी क्यों लगती है? इस प्रश्न से पहले यह विचारणीय है कि थकान होती किसे है, राजभाषा को अथवा व्यक्ति विशेष को? राजभाषा की थकान से क्या तात्पर्य निकाला निकाला जाए? अरे, इतने सारे प्रश्न अचानक मन में क्यों उभर रहे हैं? यह क्या? भाषा के प्रश्न पर मन इतना बेसब्र क्यों हो जाता है ? ऐसा लगता है कि इस विषय पर मन खुल कर बहस करने को तैयार है। पर बहस,चर्चाऍ तो होती रहती हैं,फिर यह आस कैसी? यह तो एक सोच मात्र है, इसपर बहस या चर्चा तो केवल हिंदी दिवस को ही सम्भव है अन्यथा शेष दिवसों में सुध ही नहीं आती। यूँ तो यह बहुत पुराना और घिस चुका वाक्य है यह फिर भी प्रासंगिक है। हिंदी दिवस को थकान तो व्यक्ति को होती है बल्कि राजभाषा तो सतत निखरती जाती है तथा शाम ढलते-ढलते वह दीप्ति व उर्जा की प्रखरता पर होती है।

हिंदी दिवस एक दिखावा है, राजभाषा का दुख प्रदर्शन है, घड़ियाली आंसू है, एक दिन हिंदी का शेष दिन अंग्रेज़ी का आदि अनेकों वाक्य हैं जो राजभाषा की प्रतिकूल टिप्पणियों से भरपूर हैं। यह सारे वाक्य हिंदी दिवस को या उसके आस-पास निकलते हैं मानों किसी खोह से नकारात्मक उर्जा निकल आयी हो। कौन गढ़ता है ऐसे वाक्य? सरल उत्तर है, हम लोगों में से ही कोई एक, जिसका प्रयोग अन्यों द्वारा किया जाता है। यहॉ प्रश्न उभरता है कि यह "एक" और "अन्य" कौन लोग हैं? राजभाषा को नकारात्मक उर्जा की चादर से ढंकने की कोशिश करनेवाले कौन लोग हैं? क्या यह वे लोग हैं जिन्हें राजभाषा नहीं आती है? यह एक बेतुका सवाल लगता है। राजभाषा सभी कार्यालय कर्मियों को आती है विशेषकर विभिन्न सरकारी कार्यालयों के कर्मचारियों को। यदि किसी को नहीं आती है तो वे गंभीरतापूर्वक सीखने का प्रयास करते हैं। सत्य तो यह है कि नकारात्मक बोल बोलनेवाले राजभाषा के बारे में कुछ जानते नहीं या अधूरी जानकारी रखते हैं।

हिन्दी दिवस पर प्रायः जिस हिन्दी की चर्चा होती है वह ना तो अखबारी हिन्दी है, ना तो बोलचाल की हिन्दी है और ना ही विभिन्न मनोरंजन के केन्द्रों की हिन्दी है। इस दिवस पर चिंता जिस हिन्दी की होती है वह है कामकाजी हिन्दी। विभिन्न मंत्रालयों, सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में जिस गति से अँग्रेजी का प्रयोग किया जा रहा है वह गति राजभाषा को नहीं मिल पा रही है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि राजभाषा को अँग्रेजी जैसी गति ना मिल पाने का मूल कारण क्या है? 14 सितंबर 1949 से लगातार राजभाषा को सिंचित किया जा रहा है परंतु प्रायः कोंपल तक ही आकार राजभाषा रुक जाती है। क्या कभी राजभाषा कार्यान्यवन की गहन समीक्षा की गयी है? क्या इस बात का अंदाज़ा लगाने की कोशिश की गयी है कि कहीं राजभाषा केवल सांविधिक अपेक्षाओं तक तो सिमट कर नहीं रह गयी है? हिन्दी की तो बहुत चर्चाएँ-परिचर्चाएँ होती हैं किन्तु राजभाषा अब तक कार्यालय की चौखट से बाहर कदम नहीं रख सकी है? आवश्यकता है कि हिन्दी दिवस पर कार्यालय की हद से बाहर  राजभाषा पर भी गहन और व्यापक चर्चा हो। जिस दिन से राजभाषा पर व्यापक निगरानी शुरू हो जाएगी उसी दिन से राजभाषा पुष्पित और सुगंधमयी लगाने लगेगी और हिन्दी संपूर्णता में समर्थ हो जाएगी।


हिंदी दिवस के अवसर पर बिना किसी विवाद में उलझे हुए यह अभिलाषा है कि भारतीय संविधान की राजभाषा नीति का मनोयोगपूर्वक कार्यान्वयन हो, राजभाषा विषयक निर्णयों,दिशानिर्देशों आदेशों आदि को अपनाया जाए, कामकाजी हिंदी के रूप में राजभाषा की प्रकृति, अंदाज़ तथा तेवर की पहचान सबको हो जाए और हिंदी साहित्य तथा राजभाषा को एक ही नज़रिए से देखने में तब्दीली आ जाए। हिंदी दिवस के अवसर पर राजभाषा से सीधे जुड़े सभी लोग राजभाषा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अपनी कर्मठता से कार्यरूप में सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर सकें। हिंदी दिवस के पावन अवसर पर बस यही अभिलाषा है।

धीरेन्द्र सिंह.

शनिवार, 22 अगस्त 2009

राजभाषा के राग

राजभाषा को देश अभी भी समझ रहा है। इस समझ में ऊभरे नए-नए विचारों की नई-नई बोलियॉ होती हैं पर सबसे मज़ेदार बात यह है कि इन बोलियों के भाव दशकों पुराने होते हैं। चूँकि राजभाषा हिन्दी को अभी भी हमारा देश समझने में की प्रक्रिया में है इसलिए इन रागों को अब भी वैसे ही सुना जाता है जैसे दशकों पहले सुना जाता था। इस प्रक्रिया में वक्ता और श्रोताओं में बौद्धिक गम्भीरता का दर्शन सहज ही हो जाता है। न तो राजभाषा के राग अलापने वाले थके और न ही श्रोता उकताए हैं। यूँ तो सम्पूर्ण वर्ष इस तरह के दिलकश नज़ारे मिल जाते हैं किंतु सितम्बर माह में इसकी धूम रहती है। आईए कुछ महत्वपूर्ण और व्यापक प्रसारित राजभाषा रागों से परिचित हो लें –

हठवादी राग – यह राग उन लोगों में ज्यादा लोकप्रिय है जिन लोगों ने भारत के संविधान में राजभाषा के अनुच्छेदों को न तो पढ़ने की ज़हमत उठाई है या / और न इसे समझने की कोशिश की है। यह राग हिन्दी को पूरे देश में तत्काल अनिवार्य रूप से करने की बात कहता है तथा इस राग का मानना है कि क्रमबद्ध रूप से धीरे-धीरे हिन्दी को लागू करने की बात एक औपचारिकता है जिससे हिन्दी नहीं आएगी। सरकार आज से इसे अनिवार्य कर दे तो कल से पूरे देश में राजभाषा लागू हो जाएगी और अपने विचारों के समर्थन में वही पुराना नाम कमाल पाशा का उदाहरण जोशीले अंदाज़ में प्रस्तुत कर देते हैं। इस हठवादी राग में जोश बेलगाम होता है जिससे श्रोतागण तालियॉ खूब बजाते हैं।

सुधारवादी राग – इस राग के समर्थक हमेशा बौद्धिक परिवेश में जीने के चिन्तन से ग्रसित रहते हैं तथा सहजतापूर्वक दूसरों में गलतियॉ ढूँढ लेना इनकी एक प्रमुख विशेषता होती है। राजभाषा नीति का पठन किए हुए इस राग में बोलने वाले हमेशा इतिहास में हुई गलतियों की चर्चा करते हैं। इनका दृढ़ मत होता है कि संविधान निर्माण के समय ही हिन्दी को अनिवार्य कर देना चाहिए था। राजभाषा को लागू करने का यह प्रयास एक अंतहीन सिलसिला है तथा उस समय के नेताओं की अदूरदर्शिता है। इस राग को अलापने वालों के व्याख्यान पर तालियॉ नहीं बजतीं जिसे एक गम्भीर बौद्धिक परिवेश के चिंतन का क्षण समझने के भ्रम में ऐसे वक्ता स्वंय में खुश हो लेते हैं।

राष्ट्रवादी राग – प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक ध्वज, अपनी भौगोलिक सीमाऍ तथा अपनी भाषा होती है जो राष्ट्र की अस्मिता की एक सशक्त पहचान होती है, इस विचार को कट्टरतापूर्वक मानने वाले लोग राष्ट्रवादी राग के अनुयायी होते हैं। इनका यह मानना रहता है कि राष्ट्र के प्रति इनकी लगन, इनकी सोच तथा इनका समर्पण सर्वश्रेष्ठ है जबकि कुछ ना कुछ कमी देश के अन्य नागरिकों में है। इनके सम्बोधन में राष्ट्र की आजादी के समय के क्रांतिकारियों का उल्लेख अवश्य रहता है। यह लोग बेधड़क बोल जाते हैं कि जिस देश की अपनी भाषा नहीं वह देश सही मायनों में स्वतंत्र देश ही नहीं है। इनके अनुसार देश के कामकाज में अंग्रेज़ी का प्रयोग बौद्धिक गुलामी का प्रतीक है। ऐसे लोग लॉर्ड मैकाले का उल्लेख करना नहीं भूलते तथा प्रश्नांकित तालियों को सुनकर अपने संबोधन पर धन्य-धन्य हो जाते हैं।

चिंतनवादी राग – इस राग में बोलनेवाले लोग सामान्यतया ऊँचे ओहदेवाले होते हैं। प्राय: इन्हें मंच पर सम्माननीय स्थान प्रदान किया जाता है। गंभीर चेहरा लिए एक गहरे चिंतन की मुद्रा इनकी शैली भी होती है और अदा भी होती है। इनका कहना है कि स्वतंत्र देश में अपनी भाषा के लिए दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा, माह मनाना एक दुखद स्थिति है जिसपर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हिंदी दिवस के स्थान पर हम अंग्रेज़ी दिवस मनाऍ। श्रोताओं के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि बात हिंदी के पक्ष में हो रही है या अंग्रेज़ी के पक्ष में, इसके बावजूद भी वक्ता को भरपूर तालियों से नवाज़ा जाता है।

संतुलनवादी राग – इस राग का वक्ता त्रिभाषा सूत्र का हिमायती होता है इसलिए हिंदी के साथ-साथ यह स्थानीय भाषा के अतिरिक्त दक्षिण की एक भाषा की भी बात करता है। इस वक्ता के मन में क क्षेत्र के प्रति एक आक्रोश रहता है अतएव इस वक्ता की दलील रहती है कि क क्षेत्र के राज्यों को अपने पाठ्यक्रम में दक्षिण की एक भाषा को सम्मिलित करना चाहिए। इनके मतानुसार यदि गंभीरतापूर्वक त्रिभाषा सूत्र को लागू कर दिया जाए तो राजभाषा कार्यान्वयन संपूर्ण राष्ट्र में सुगमतापूर्वक संपन्न होगा।

समन्वयवादी राग – इस चिंतन के वक्ता वसुधैव कुटुंबकम के अंधी श्रद्धा लिए होते हैं। इनकी यह मान्यता है कि काम हो जाना चाहिए भाषा के झमेले में पड़ने से क्या हासिल होगा। हिंदी बोलो, अंग्रेज़ी बोलो या किमकोई और भाषा यदि आपकी बात सामनेवाला समझ ले रहा है तो यह काफी है। भाषा का महत्व केवल सम्प्रेषण है। भाषा को सब्यता और संसेकृति से जोड़ना मानसिक अल्पज्ञता के सिवा कुछ नहीं। इन आधुनिक चिंतको का यह कहना है कि हिंदी को यदि रोमन लिपि में भी लिखा जाए तो क्या हर्ज़ है। हिंदी फिल्मों के संवाद तथा उनका प्रचार-प्रसार रोमन लिपि में धड़ल्ले से हो रहा है। यह एक सा उदाहरण है जो भविष्य की हिंदी की ओर ईशारा कर रहा है। आधुनिक युग कारोबार विकास और संपन्नता की ओर उन्मुख है तथा इसमें भाषा, लिपि आदि पर विचार, संगोष्ठियॉ, चर्चाऍ आदि वक्त की बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं। हतप्रभ श्रोता असमंजस में डूबे रहते हैं तथा ताली बजाना कुछ को याद रहता है, कुछ भूल जाते हैं। इस समन्वयवादी वक्ता को लगता है कि जनमानस के चिंतन को इन्होंने बखूबी झकझोड़ दिया है।

इस प्रकार के कई राग हैं जो हर वर्ष सितंबर महीने में गाए जाते हैं, सुनाए जाते हैं, भाषिक बौद्धिकता के मंच पर भुनाए जाते हें। राजभाषा हिंदी को जम कर खरी-खोटी सुनाई जाती है, नए वायदे किए जाते है, पुराने आश्वासनों को मानसिकता में परिवर्तन न होने के कारण तार्किक चादर से खूबसूरती से ढंक दिया जाता है, राजभाषा अधिकारी या हिन्दी अधिकारी को इस विषय के एक प्रमुख और एकमात्र अभियुक्त के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तथा भिन्न-भिन्न शब्दावलियों से सम्बोधित किया जाता है, व्यक्तित्व मंडन किया जाता है। सितंबर का महीना बीतते ही राजभाषा की चर्चा फिर एक साल के लिए बंद हो जाती है। एक पर्व की तरह राजभाषा उत्व आता है और चला जाता है। सितंबर का महीना है चलिए एक नया राग ढूंढा जाए ।

धीरेन्द्र सिंह.

बुधवार, 29 जुलाई 2009

भाषा युद्ध

प्रत्येक राष्ट्र के भाषाविद्, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता आदि एक स्वर में मातृभाषा में ज्ञानार्जन तथा अभिव्यक्ति को महत्व देते रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक कारणों से यह संभव नहीं हो पाता कि प्रत्येक व्यक्ति की मातृभाषा को व्यापक प्रचार-प्रसार मिले इसलिए उस देश की कुछ भाषाओं को ही वह स्थान प्राप्त हो पाता है जहॉ से वह भाषा लिखित और मौखिक प्रयोगों में अपनी उपयोगिता प्रमाणित करती है। इस प्रकार भाषाऍ अपनी क्षमताओं में निरन्तर विकास करती जाती हैं तथा प्रत्येक क्षेत्र की अभिव्यक्ति को बखूबी बयॉ करती रहती है। भाषा अपनी तमाम विशेषताओं के संग अपनी वर्चस्वता को भी बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहती है। आधुनिक युग में भाषा की सहजता, सुगमता और सहज स्वीकृति उतनी चुनौतीपूर्ण नहीं है जितनी चुनौतियॉ भाषा की वर्चस्वता के लिए है। अपने राष्ट्र की परिधि से निकल भाषा जितने अधिक अन्य राष्ट्रों में जाएगी वह भाषा उतनी ही सशक्त और सक्षम मानी जाएगी। उन्नत और उन्नतशील राष्ट्रों में भाषा की वर्चस्वता को लेकर एक अघोषित युद्ध जारी है।

यह अघोषित युद्ध दूसरे राष्ट्रों की भाषाओं के नकार जनित नहीं है बल्कि इस युद्ध का एकमात्र लक्ष्य अपनी भाषा की वर्चस्वता को स्थापित कर अपनी एक विशेष पहचान बनाना है। यह युद्ध भाषा की दृष्टि से ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टि से भी एक सकारात्मक युद्ध है जिसमें इन्टरनेट की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। सिमटते विश्व में एक राष्ट्र अपनी भाषा का प्रचार-प्रसार कर दूसरे देशों की प्रतिभाओं को अपने देश में आकर्षित करने का वैश्विक परम्परागत प्रयास करता है। विकासशील और विकसित दोनों राष्ट्र इस क्षेत्र में काफी तेजी से सक्रिय हैं तथा खामोशी से भाषा का युद्ध जारी है। यह युद्ध केवल राष्ट्रों के बीच नहीं है बल्कि अधिकांश बहुभाषी देशों में भी है जहॉ पर राष्ट्र की एक भाषा से दूसरी भाषा से लड़ाई है अर्थात राष्ट्र के भीतर भी वर्चस्वता के लिए भाषाऍ लड़ रही हैं। आए दिन समाचारों में भाषा विषयक इस प्रकार के समाचार मिलते रहते हैं।

इस युद्ध में तत्परतापूर्वक सिर्फ निर्णय ही नहीं लिया जा रहा है बल्कि निर्णय के कार्यान्वयन हेतु पहल और प्रयास भी हो रहा है। हाल ही में मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री मुह्यीद्दीन यासीन ने घोषणा कर दी कि वर्ष 2012 से विद्यालयों में गणित तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी भाषा में नहीं दी जाएगी बल्कि अंग्रेज़ी के स्थान पर चीनी या तमिल भाषा में शिक्षा प्रदान की जाएगी। इस प्रकार भाषा की एक जोरदार बहस मलेशिया में छिड़ गई तथा अंग्रेजी से चीनी तथा तमिल भाषा का संघर्ष आरम्भ हो गया। इस युद्ध का परिणाम मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री की घोषणा में सहजता से पाया जा सकता है। नेपाल ने भी भाषा का एक स्पष्ट युद्ध छेड़ दिया है। नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम उप-राष्ट्रपति परमानन्द झा द्वारा हिंदी में ली गई शपथ को अमान्य करते हुए उन्हें फिर से नेपाली भाषा में शपथ लेने के लिए कहा है। क्या यह दो उदाहरण भविष्य में भाषा के युद्ध में वृद्धि के संकेत नहीं दे रहे हैं ? यदि संशय है तो निम्नलिखित आंकड़े तस्वीर को और साफ करने में सहायक होंगे –

कुल फीचर फिल्मों की संख्या कुल दर्शकों की संख्या (करोड़ में)
भारत 1,132 3,290
यू।एस। ५२० १३६४
चीन ४०० १९६
फ्रांस 240 १९०
जर्मनी 185 129
स्पेन १७३ 108
इटली १५५ 108
रिप. ऑफ़ कोरिया ११३ 151
यू।के। १०२ 164

उक्त आंकड़ों में भारत ने वर्ष 2007 में कुल 1132 फीचर फिल्मों का निर्माण किया जिसमें मुंबई, हैदराबाद तथा चेन्नई में निर्मित फिल्में हैं। भारत में निर्मित फिल्मों की संख्या यू.एस., चीन तथा फ्रांस में निर्मित की कुल फिल्मों के बराबर है। यहॉ अचानक फिल्मों की चर्चा से आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह भी भाषा युद्ध का एक हिस्सा है। जितनी अधिक फिल्में होंगी भाषा का विपणन उतना ही अधिक होगा। भाषा का विपणन भाषा युद्ध का एक अभिन्न हिस्सा है। फिल्में एक भाषा विशेष तथा संस्कृति के आधार और क्षमता को बनाए रखती हैं और उसमें निरन्तर विकास करते रहती हैं। भारत देश में इतनी अधिक संख्या में फिल्मों का निर्माण भारतीय भाषा की पहुँच को विश्वस्तर तक ले जाने का भी एक प्रयास है। कला और संस्कृति से भाषा इतनी गहराई से जुड़ी है कि इनका एक अटूट पैकेज है।

इस भाषा युद्ध में यदि दक्षिण एशिया की चर्चा की जाए तो चीन सर्वोत्तम है तथा इसकी कोई मिसाल नहीं है। अपनी पहचान, अपनी बेहतर छवि तथा अपनी वर्चस्वता के लिए जारी इस भाषा युद्ध में भारत भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज किए है जिसमें फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। यूनिकोड की उपयोगिता में वृद्धि से इंटरनेट पर भी देवनागरी की सहज पैठ बन गई है जिससे हिंदी की लोकप्रियता को एक नया आधार मिला है।। भाषा का नकार तथा स्वीकार जारी है तथा इस युद्ध में भाषाऍ एक नए रूप में अभिव्यक्ति के नए अंदाजों सहित प्रस्फुटित हो रही है।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 1 जुलाई 2009

भाषा के दृष्टिकोण से भारत और चीन

दक्षिण एशिया में सुपर पॉवर बनने की होड़ भारत और चीन के मध्य जारी है तथा दोनों देश समय-समय पर अपनी वर्चस्वता का दावा करते रहते हैं। सुपर पॉवर बनने के लिए किसी भी देश को सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक आदि क्षेत्रों में अपनी वर्चस्वता बनानी पड़ती है तथा इस वर्चस्वता के प्रयासों में भाषा के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। भारत और चीन दोनों बहुसंख्यक और बहुभाषी देश हैं तथा दोनों देशों की अपनी राजभाषा है। हिंदी भारत की राजभाषा है तथा मन्दारिन चीन की राजभाषा है परन्तु दोनों देशों की राजभाषाओं में काफी समानताऍ हैं। भारत की राजभाषा हिंदी अभी भी कार्यान्वयन की स्थिति में है जबकि चीन की राजभाषा मन्दारिन चीन की धड़कनों को अभिव्यक्त करने का सर्वप्रमुख माध्यम है। भारत में अंग्रेजी भाषा का भी बोलबाला है जबकि चीन में मन्दारिन तथा अन्य चीनी भाषाओं का ही प्रयोग होता है।

चीन की अन्य विशेषताओं में से एक प्रमुख विशेषता चीनी भाषा में संपूर्ण शिक्षा प्रदान करना है। बारम्बार विभिन्न मंचों से कहा जाता रहा है कि मातृभाषा में शिक्षा प्रतिभा विकास में अत्यधिक सहायक सिद्ध होती है। भारत में भी मातृभाषा में शिक्षा पर बल दिया जाता है परन्तु अंग्रेजी भाषा यहाँ लोगों को मोहित करती नज़र आती है। चीन में अपनी भाषा के प्रति आदर सराहनीय है तथा चीनी भाषा के प्रति सजग भी प्रतीत होते हैं। भाषा के प्रति सम्मान भारत में भी है। चीन के पेकिंग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष श्री जियांग जिंगूकी का कहना है कि “ मेरे को ” शब्द का प्रयोग भारतीय क्यों करते हैं यह अशुद्ध है ‘मेरे को’ के स्थान पर ‘मुझको’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। चीन अब विदेशी भाषाओं में भी अपनी दख़ल बनाने में लग गया है। चीनी हिंदी सीखने में भी पीछे नहीं हैं। भाषा के प्रति ऐसी ललक भारत में बहुत कम दिखलाई पड़ती है। भारत देश में भाषा विषयक मुद्दों पर व्यापक सार्वजनिक चर्चाऍ नहीं हो पाईं यद्यपि आंदोलन अवश्य हुए जिसने भाषा की सोच की प्रक्रिया को तितर-बितर कर दिया।

भारत में चीन के किसी भाषा या मन्दारिन का किस स्तर तक अध्ययन किया जा रहा है तथा चीनी भाषाओं की भारत में क्या संभावनाऍ हैं इसपर जानकारियॉ सहज रूप से अनुपलब्ध हैं जबकि इससे विपरीत चीन में हिंदी को लेकर एक उत्साहजनक स्थिति है। वर्तमान में लगभग सात करोड़ स्नातक नौकरी की तलाश में हैं फिर भी चीन के कैम्पस में हिंदी तथा अन्य भाषाओं के अध्ययन करनेवालों के लिए नौकरी के प्रस्ताव आ रहे हैं। क्या भारत में भाषाओं के प्रति इस प्रकार की संचेतना है। चीन में हिंदी भाषा सीखनेवाले विद्यार्थियों ने अपना नाम हिंदी में लिखकर अपनी एक वैकल्पिक पहचान बनाई है। इन विद्यार्थियों के नाम अजय, सागर, विष्णु आदि हैं तथा यह भारतीय संस्कृति का अध्ययन करते हैं और रामायण और महाभारत सीरिअल देखते हैं। भारत को गहराई तक जानने की यह ललक यह दर्साती है कि चीन में हिंदी की काफी संभावनाऍ हैं। पिछले वित्तीय वर्ष के आर्थिक मंदी के बावजूद भी भारत तथा चीन के बीच कारोबार 34 प्रतिशत रहा किंतु दोनों देशों के व्यापारी शायद ही एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति को समझ पाते हैं। वर्तमान में चीन के सात हिंदी विभागों में लगभग 200 विद्यार्थी हिंदी का अध्ययन कर रहे हैं।

भारत में भाषा का अध्ययन या तो शिक्षण के लिए होता है या फिर मीडिया के लिए। भाषा की अन्य विधाओं की और रूझान अधिक नहीं है। हिंदी प्रमुखतया साहित्य, मनोरंजन और मीडिया की भाषा बनी हुई है तथा इसके विस्तार की आवश्यकता है। शिक्षा में हिंदी की प्रभावशाली उपस्थिति अभी भी नहीं है, प्रशासन में इसकी उपयोगिता में प्रगति धीमी है, राजभाषा के रूप में अपनी छवि बनाने में प्रयत्नशील है आदि कई क्षेत्र हैं। समस्या हिंदी भाषा की क्षमता की नहीं है बल्कि उलझन हिंदी के उपयोगिता की है। मन्दारिन भाषा में प्रयोग किए जानेवाले कुल शब्द 500,000 से भी अधिक हैं जबकि हिन्दी में शब्दों की संख्या 120,000 है। इंटरनेट पर चीनी भाषा प्रयोग करनेवाले 321 करोड़ लोग हैं तथा यह विश्व की दूसरी भाषा है किंतु इंटरनेट की श्रेष्ठ 10 भाषाओं में हिंदी का नाम नहीं है। चीन की भाषागत सोच आधुनिक है तथा भविष्य के लिए चीन अपनी तैयारियॉ कर रहा है और उसका इज़हार भी कर रहा है। भारत में भाषागत ऐसी खनक नहीं है।

धीरेन्द्र सिंह.

रविवार, 21 जून 2009

हिंदी-राष्ट्र की धड़कन-राष्ट्र की सोच.

भारत देश में आम बोलचाल की भाषा, फिल्मों तथा दूरदर्शन के निजी चैनलों पर चटखती-मटकती हिंदी, राष्ट्र की धड़कनों को बखूबी बयॉ कर रही है परन्तु यह हिंदी राष्ट्र की सोच को अभिव्यक्ति नहीं कर पा रही है। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र की धड़कनों और राष्ट्र की सोच के मध्य एक लंबा अन्तराल निर्मित हो गया है। यह अन्तराल हिंदी की धड़कनों (हिंदी के अध्यापक, रचनाकार आदि) को हिंदी की सोच (व्यावसायिक, राजनैतिक, विधिक, नीतिपरक आदि) से मिलाने में बाधक है। लोकप्रिय हिंदी (बोलचाल, मीडिया, फिल्में, साहित्यिक आदि) और राजभाषा हिंदी, रेल की पटरियों की तरह सामानान्तर हैं जिनके मिलन का प्रयास अत्यावश्यक है। हिंदी की लोकप्रियता भाषा की पराकाष्ठा की और है तथा हिंदी के इस विधा में लगातार नवीनताऍ और विभिन्नताऍ जुड़ती जा रही हैं। विश्व की प्रमुख भाषाओं को चुनौती देती हिंदी का कमज़ोर पक्ष है राष्ट्र की सम्पूर्ण सोच का वाहक बनना। वर्तमान में राजभाषा के रूप में हिंदी की चुनौती राष्ट्र की संपूर्ण सोच को अभिव्यक्ति प्रदान करने के अधिकार को प्राप्त करना है।

वर्तमान विश्व में उन्नत राष्ट्रों की विभिन्न विशिष्टताओं में उनकी अपनी भाषा का पल्लवन भी एक प्रमुख विशेषता है। एक राष्ट्र किसी भी दूसरे राष्ट्र के विकसित भाषा को स्वीकार कर अपनी माटी की विश्व पहचान नहीं करा सकता यह अनेकों माध्यमों से प्रमाणित हो चुका है। इसके बावजूद भी हिंदी के राजभाषा स्वरूप को लेकर तर्क-कुतर्क जारी है जिससे राजभाषा हिंदी की हानि हो रही है। बैकिंग, बीमा, आयकर, सीमा शुल्क, प्रौद्योगिकी, रसायन, विधि आदि की भिन्न-भिन्न शब्दानलियॉ हैं जिनको आम हिंदी की शब्दावलियों के द्वारा अभिव्यक्त करना कठिन है। यह केवल हिंदी के साथ नहीं है बल्कि विश्व की सभी उन्नत भाषाओं के साथ ऐसा ही होता है। ज्ञातव्य है कि प्रत्येक भाषा में बोलचाल की भाषा, मीडिया की भाषा, साहित्यिक भाषा और कामकाजी भाषा में अन्तर होता है। सड़कों पर प्रयुक्त शब्दावली जनहित के कार्यालयों की शब्दावली नहीं बन सकती, कार्यालयों की शब्दावली विधि की शब्दावली नहीं बन सकती, विधि की शब्दावली प्रौद्योगिकी की शब्दावली नहीं बन सकती यद्यपि न सभी में हिंदी अपनी स्वाभाविक पहचान के साथ अवश्य रहती है। हिंदी शब्दावलियों की इतनी विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं का विकास करना अत्यावश्यक है। हिंदी के परम्परागत साहित्य (कहानी, कविता आदि) को छोड़ दें तो शेष विषयों पर कितना लिखा जा रहा है और क्या लिखा जा रहा है, यह सोच का विषय है।

विश्व की अन्य विकसित भाषाओं में न केवल तथाकथित साहित्य बल्कि अन्य विषयों पर खूब लिखा जाता है, मौलिक लिखा जाता है। हिंदी अब भी अनुवाद के सहारे चल रही है। यह तथ्य है कि प्रौद्योगिकी में कुछ समय तक अनुवाद पर निर्भर रहना पड़ेगा किन्तु अन्य क्षेत्रों में तो मौलिक लिखा जा सकता है। यहॉ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अन्य क्षेत्रों से क्या तात्पर्य है। मेरा आशय विभिन्न सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों आदि के विभिन्न विषयों पर हिंदी में मौलिक रूप से लिखना। यदि इस तरह का मौलिक लेखन व्यापक स्तर पर नहीं किया जाएगा तो राष्ट्र की सोच की संवाहिनी हिंदी कैसे बन सकेगी। इन क्षेत्र में हिंदी में जो भी लिखा जा रहा है उसमें अधिकांश अनुवाद है. क्या राजभाषा को अनुवाद की भाषा होना चाहिए ? यहॉ प्रश्न ऊभरता है कि कठिनाई क्या है ? कठिनाई सिर्फ यह है कि इस दिशा में न तो पहल हो रही है और न ही सवाल किए जा रहे हैं अलबत्ता राजभाषा के कार्य से जुड़े लोगों पर छींटाकशी की जाती है। राजभाषा कार्यान्वयन के लिए एक जनमत की आवश्यकता है। राजभाषा विकसित हो चुकी है, सक्षम हो चुकी है परन्तु खुलकर प्रयोग में नहीं लाई जा रही है। हिंदी राष्ट्र की धड़कन तो बन चुकी है परन्तु राजभाषा अब भी राष्ट्र की सोच की भाषा बनने की प्रतीक्षा कर रही है। और कितनी प्रतीक्षा ? इसका उत्तर और कहीं नहीं हमारे पास है, हम सबके पास।

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 15 जून 2009

भाषाई जाल - अस्तित्व और अस्मिता

भारत देश की परम्परा में वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धान्त पल्लवित होते रहता है जिसे भूमंडलीकरण ने और गति प्रदान की है। वसुधैव कुटुम्बकम पूरे ब्रह्मांड को एक परिवार के रूप में मानता है जिसके अनेकों कारण हैं। आज मानव यह बखूबी अनुभव करने लगा है कि दुनिया सिमटती जा रही है और व्यक्ति इस दुनिया में एक नए विस्तार में जीने लगा है। सात समंदर पार जाना अब स्वप्न नहीं रह गया है। यह मानवीय क्रांति भूगोल, समाजशास्त्र, साहित्य, कारोबार आदि को गहराई से प्रभावित करने लगा है जिसमें अभिव्यक्ति विशाल चुनौतियों से गुज़र रही है। दो सुदूर देशों के व्यक्तियों का मिल पाना तो आसान है किन्तु उनकी आपसी बातचीत आसान नहीं है। कल तक अंग्रेज़ी को विश्वभाषा मानने का विश्वास वसुधैव कुटुम्बकम के यथार्थ ने बखूबी तोड़ा है। अब अंग्रेजी के अतिरिक्त भी विदेशी भाषाएं सीखने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।

भाषा के इस द्वंद्व का ताजा अनुभव आई.पी.एल. मैच के दौरान हुआ। विश्व के कई देशों के खिलाड़ी एक टीम में खेल रहे थे इसमें से किसी को अंग्रेज़ी भाषा के सिवा अन्य भाषाओं की जानकारी नहीं थी तो कोई हिंदी नहीं जानता था तथा किसी को ना तो अंग्रेज़ी आती थी और ना ही हिंदी का ज्ञान था। इस विकट परिस्थिति में आपस में बातें भी स्पष्ट नहीं हो पातीं थीं जिससे अक्सर यह होता था कि कहा कुछ जाता था और समझा कुछ जाता था जिसके परिणामस्वरूप टीम का कार्यनिष्पादन प्रभावित होता था और आपसी ताल-मेल पर भी प्रतिकूल असर पड़ता था। यही स्थिति सैलानियों के साथ भी होता होगा, व्यापार में भी इस भाषा दीवार से खासी दिक्कतें पैदा होती होंगी। ऐसी स्थिति में भारत देश की कौन सी भाषा प्रयोग में लाई जाती है ? उत्तर सर्वविदित है – अंग्रेजी। यह अंग्रेजी विश्व के कितने देशों में सफल सम्प्रेषण में सहायक होती है ? इस बारे में अनेकों आंकड़ें, कथ्य-तथ्य आदि हैं परन्तु इन सबके बावजूद भी विश्व के आधे देशों तक में अंग्रेज में सफल सम्प्रेषण नहीं किया जा सकता है। फिर हिंदी को क्यों छोड़ दिया गया है। गीत-संगीत, मनोरंजन, भाव-निभाव आदि में जिस हिंदी का वर्चस्व है वह कारोबार, वैश्विक संपर्क में मूक क्यों हो जाती है ?

भाषाई जाल तथा अस्तित्व अस्मिता का एक ताज़ातरीन उदाहरण अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के 2 मई, 09 के मुंबई संस्करण में पढ़ने को मिला। वर्ष 2010 में दिल्ली में आयोजित होनेवाले कॉमनवेल्थ खेलों के लिए भिखारियों ने विदेशी भाषाओं को सीखना आरम्भ कर दिया है। यह एक चौंकानेवाली सूचना है क्योंकि अशिक्षित भिखारी कैसै विदेशी भाषा सीख सकते हैं ? समाचार में यह सूचना दी गई थी कि अनुभवी भिक्षुक राजू सांसी दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र में एक विद्यालय खुले आसमान के तले चला रहा है जिसमें चयनित 45 बच्चों को भीख मांगने के ज्ञान और गुर को सिखाया जा रहा है जिससे इन बच्चों के भीख मांगने के कौशल में वृद्धि हो सके। इसके अतिरिक्त दिल्ली के पटेल नगर की कटपुतली कॉलोनी में पतलू द्वारा दूसरा विद्यालय चलाया जा रहा है जिसमें विदेशी भाषाओं के प्रमुख शब्दों और वाक्यों के साथ-साथ वास्तविक विदेशी करेंसी रूपयों की सही पहचान का भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इन भिखारियों को सिखाई जानेवाली प्रमुख भाषाएं अंग्रेजी, फ्रेंच तथा स्पैनिश हैं। रोटी के साथ भाषा का मेल काफी पुराना हो चला है अब तो संपन्नता के साथ भाषा के मेल का दौर चल पड़ा है जिसमें कई स्तरों पर उपेक्षा जैसी त्रासदी के बीच भी हिंदी प्रगति कर रही है। कॉमनवेल्थ के इस खेल में भाषा का यह खेल कुछ लोगों को संपन्न अवश्य बनाएगा यह इन भिखारियों के परिप्रेक्ष्य में एक सटीक बात प्रतीत होती है।

भाषा के इस वैश्विक संघर्ष में हिंदी अपने अस्तित्व के लिए कितना प्रयासरत है इसकी व्यापक समीक्षा समय की मांग है। मीडिया और मनोरंजन के अतिरिक्त व्यापार तथा अंतर्राष्ट्रीय समारोहों आदि में जब तक हिंदी का खुलकर प्रयोग नहीं किया जाएगा तब तक हिंदी अन्य विश्व भाषाओं से प्रतिद्वद्विता करने के लिए स्वंय को सक्षम नहीं बना सकती है। यद्यपि हिंदी की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है लेकिन इन क्षमताओं का प्रभावशाली प्रदर्शन भी किया जाना अत्यावश्यक है। इसके लिए सम्पूर्ण देश में भाषागत जागरूकता की आवश्यकता है। भिक्षुकों द्वारा की जा रही अपनी भाषागत तैयारियॉ यह दर्शाती हैं कि यदि लक्ष्यपरक कार्य किया जाए तो भारत देश के विभिन्न कार्यालयों के कामकाज में हिंदी का प्रयोग न तो कठिन है और न हीं दोयम दर्ज़े का है। इन सबके बावजूद भी राजभाषा कार्यान्वयन को एक “राजू सांसी” तथा एक “पतलू” की तलाश है जिनमें राजभाषा कार्यान्वयन की दीवानगी भी हो तथा साथ ही साथ कामकाजी हिंदी की वास्तविक प्रगति के आकलन की दृष्टि भी हो। खेल का मैदान हो या कि कारोबारी दुनिया हर जगह हिंदी को ले जाने की ईच्छाशक्ति की आवश्यकता है। हिंदी हर क्षेत्र तथा हर विधा को बखूबी अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है तथा इसमें सतत विकास हो रहा है। भूमंडलीकरण में भाषाई जाल में हिंदी अपने अस्तित्व और अस्मिता का लड़ाई लड़ रही है तथा उसे आप जैसे योद्धा की आवश्यकता है। क्या आप तैयार हैं ?

धीरेन्द्र सिंह.