मंगलवार, 24 नवंबर 2009

मराठी अस्मिता और भारतीय भाषाऍ

भाषा के लिए सुर्खियों में रहनेवाला महानगर मुंबई संभवत: एकमात्र महानगर है जो वर्षों से मराठी अस्मिता की बातें कर रहा है, संघर्ष कर रहा है। यह केवल कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसे मराठी भाषियों का समर्थन भी प्राप्त है। यदि मैं कहूँ कि कुछ प्रतिशत गैर मराठियों का भी समर्थन प्राप्त है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मराठी अस्मिता किसी व्यक्ति विशेष अथवा समूह विशेष द्वारा उछाला गया मुद्दा नहीं है बल्कि यह मराठी भाषी जनसामान्य की सोच है अतएव इस मुद्दे को जनाधार प्राप्त है। दुकान के नाम पट्ट को देवनागरी में लिखना एक आरम्भिक अभियान है जो प्रदर्शन में देवनागरी लिपि तथा मराठी भाषा के परिचय और प्रयोग का प्रथम चरण है। चूँकि यह एक जनआंदोलन है इसलिए इसमें एक चिंतन है, एक लक्ष्य है। मराठी अस्मिता को केवल स्थानीय समस्या मानकर चलना एक भूल होगी।



क्या है मराठी अस्मिता ? क्या यह केवल मराठी भाषा और मराठी भाषियों के हितों से जुड़ा हुआ मुद्दा है या कुछ और ? यहॉ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस आंदोलन में मुझे एक स्वाभिवकता नज़र आती है न कि राजनीति अतएव मराठी अस्मिता के इस आंदोलन में राजनीतिक महात्वाकांछाऍ नहीं हैं। भारत देश की आर्थिक राजधानी कही जानेवाली मुंबई विश्व के स्पंदनों का बखूबी अहसास करती है। इन स्पंदनों में यदि कोई स्पंदन मुखर है तो वह है भूमंडलीकरण। सूचनाओं, व्यवसायों, सांस्कृतिक प्रभावों आदि के बीच आज प्रत्येक राष्ट्र की प्रमुख समस्या अपनी पहचान को बनाए रखना हो गई है। यह पहचान बनाए रखने के लिए अन्य देशों के प्रभाव से बचना भी बहुत आवश्यक है। स्वंय की पहचान को बनाए रखना और उसे बचाए रखना एक प्रमुख समस्या है जिसका समाधान कहीं और नहीं प्रत्येक राष्ट्र की अपनी संस्कृति और भाषा में छुपा है। महाराष्ट्र की संस्कृति और मराठी भाषा को बचाए रखना, बसाए रखना और विकसित करते रहना ही मराठी अस्मिता है।



भारत देश का एक प्रमुख महानगर तथा वित्तीय राजधानी होने के कारण मुंबई बहुभाषी तथा बहुसंस्कृतिक है जहॉ पर कई भारतीय तथा कुछ विदेशी भाषाऍ पुष्पित तथा पल्लवित हो रही हैं। ऐसी स्थिति में यदि मराठी भाषा का आकलन किया जाए तो उसमें गिरावट नज़र आती है जो निश्चय ही चिन्ता का विषय है। कुछ वर्ष पहले तक मराठी रंगमंच अपनी लोकप्रियता के ऊँचे पायदान पर था लेकिन अब वह पायदान नहीं है। मराठी भाषी विद्यार्थी हमेशा 10 वीं तथा 12वीं कक्षा में महाराष्ट्र राज्य में प्रथम आते हैं फिर भी मराठी माध्यम के विद्यालय बंद होते जा रहे हैं। योग्यता के मानदंड में मराठी भाषा को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जाता रहा है। महाराष्ट्र राज्य में दुकान, फर्म, प्रतिष्ठान आदि खोलकर राज्य की भाषा में बोर्ड आदि प्रदर्शित न करना स्थानीय भाषा को नकारने का संकेत देता है। एक उन्नत राज्य होने के कारण मराठी भाषा की बातें जोर-शोर से करना महाराष्ट्र के प्रबुद्ध समाज की एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही कही जाएगी।





यदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो मुंबई से मराठी अस्मिता की उठती हुई आवाज़ केवल मराठी तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह अन्य भारतीय भाषाओं को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है। मराठी भाषा के प्रचार-प्रसार के अभियान से हिंदी को सीधे फायदा हो रहा है। हिंदी तथा मराठी की लिपि देवनागरी होने के कारण लक्ष्य का केन्द्रबिन्दु देवनागरी लिपि है अतएव देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार से हिंदी को भी लाभ प्राप्त होगा। गुजराती भाषा की भी स्थिति लगभग ऐसी है। मराठी भाषा का प्रतिद्वंद्वी कोई भी भारतीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय भाषा नहीं है। इसकी प्रतिद्वद्विता महाराष्ट्र की भाषिक परिस्थितियों से है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा को महत्व मिले जिससे सर्वत्र मराठी भाषा दिखे, मराठी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों को नौकरी आदि में अपेक्षित स्थान मिले आदि। भारत के संविधान में भी भाषा विषयक व्यवस्था में संघ की राजभाषा हिंदी होने के साथ-साथ संविधान की आठवीं सूची में दर्ज़ सभी भाषाओं को महत्व देने का निर्देश है। भारतीय भाषाओं को एक नई पहचान देने में मराठी अस्मिता की चर्चाऍ और प्रयास अग्रणी भूमिका निभा रही है। भविष्य में संपूर्ण विश्व में भाषिक और सांस्कृतिक द्वंद की संभावना प्रतीत हो रही है।

धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 13 सितंबर 2009

हिंदी दिवस की आवश्यकता

हिंदी तेरे रूप अनेक पर सबसे चर्चित रूप है तेरा राजभाषा. आज तेरा जन्मदिन है और मेरी धड़कनें तुझे वैसे ही बधाई दे रही हैं जैसे एक पुत्र अपनी माँ को बधाई देता है, आर्शीवाद लेता है. आज बहुत खुश होगी तू तो, हो भी क्यों नहीं साहित्य, मीडिया, फिल्म, मंच से लेकर राजभाषा तक तेरा ही तो साम्राज्य है. अब तो प्रौद्योगिकी से भी तेरा गहरा रिश्ता हो गया है,. आज केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे संसार में तेरे जन्मदिवस को मनाया जायेगा, मैं भी मानाऊँगा खूब धूम-धाम से. तूने कितनों को मान दिया है, सम्मान दिया है, रोजी दी है, रोटी दी है , एक माँ की तरह तुझसे जो भी जुड़ा तूने बड़े जतन से उसे सहेजा है. मैं भी तो उनमें से एक हूँ. पत्रकारिता, अध्यापन, मंच से लेकर कार्यालय तक तेरे हर रूप को जीया हूँ, सच तुझसे बहुत सीखा हूँ. मेरी हार्दिक बधाई और नमन.

जानती है तू कि कुछ लोग तेरे जन्मदिवस को लेकर नाराज़ होते हैं. न-न वो तुझे दुत्कारते नहीं हैं बल्कि वे सब तुझसे बेहद गहरा प्यार करते हैं शायद मुझसे भी ज्यादा क्योंकि वो तुझे ज़रा सा भी कमजोर नहीं देख सकते. तेरे राजभाषा के रूप ने ही ऐसी हलचल मचा दी है. आज सैकड़ों विचार तुझ पर चिंतन मनन करेंगे और राजभाषा और राजभाषा अधिकारियों पर अपना दुःख बयां करेंगे. मुझे भी नहीं मालूम कि यह लोग कार्यालय में होनेवाले कार्यक्रमों में तुझे नहीं देख सकते. कितनी चतुराई और श्रम से तुझे राजभाषा के रूप के प्रतिष्ठित करने में कार्यालय के लोग लगे हैं.तू भी तो बड़ी सीधी है, कभी सरकारी कामकाज की भाषा बनी ही नहीं और देख न अंग्रेजी कितनी सशक्त हो गयी है सरकारी कामकाज में. तू तो अपनी शुद्धता के दायरे में बंधी रही या बाँधी गयी उधर अंग्रेजी ने दूसरी भाषाओँ से लपक-लपक कर शब्द लेकर खुद को बड़ा ज्ञानी बना बैठी. बता तू पहले से सोचती तो आज सरकारी कामकाज मैं तेरी भी बुलंदी रहती और फिर इतने दुखी और अति सवेदनशील लोग हिंदी दिवस पर अपने दुःख प्रकट न करते.

प्रत्येक कार्यालय में राजभाषा विभाग होता है और हिंदी या राजभाषा अधिकारी होता है. राजभाषा या हिंदी विभाग को कार्यालय को सारे विभागों के परिपत्र आदि का अनुवाद करना होता है. तू तो समझ सकती है न कि सरकारी कामकाज की भाषा ना रहने से तेरे पास कार्यालयीन कार्यों की शब्दावली पहले काफी कम थी. राजभाषा विभाग अकेले कैसे सारे विभागों के विषयों पर पकड़ बनाये रख सकता है, विभिन्न विषयों की शब्दावलियों के सहज रूप को ढाले रह सकता है, इसलिए विषय को पूरी तरह समझे बिना भी हिंदी अनुवाद कर देता है जिससे अस्वाभाविक शब्द आ जाते हैं और तू कठिन लगाने लगती है. तूझे तो मालूम है न कि राजभाषा विभाग को कार्यान्वयन भी करना पड़ता है और अनुवाद भी, प्रशिक्षण भी और तुझे सरल बनाने के लिए भी कर्मी राजभाषा विभाग से ही अपेक्षा रखते हैं. पर तू ना घबड़ा सब ठीक हो रहा है और ठीक हो जायेगा. अब कार्यालय में तेरे राजभाषा रूप को सब जानने-पहचानने और अपनाने लगे हैं और तुझे आसान करने का दौर शुरू हो गया है. लगभग 5 वर्षों में तेरा राजभाषा रूप लोकप्रिय हो जायेगा तब तक शिकवे-शिकायत को सुनती जा. कार्यालयों में जिस तेजी से तुझे स्वप्रेरित होकर अपनाया जा रहा है वब निकट भविष्य में तेरे एक नए और सरल रूप को जन्म देगा. हिंदी दिवस का आयोजन वर्तमान हिंदी कि आवश्यकता है और भविष्य का संकेत भी. आती रह ऐसे ही वर्ष दर वर्ष और राजभाषा रथ को प्रगति पत पर लिए जा. मेरे जैसे लाखों लोग समर्पित भावना से आपके साथ हैं.

धीरेन्द्र सिंह



शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

हिंदी दिवस पर अभिलाषा

हिंदी दिवस भाषा का तपिश भरा दिन होता है। प्रतिवर्ष प्रशंसाओं और आलोचनाओं आदि से परिपूर्ण यह दिन शाम होते होते चर्चाओं, प्रतिक्रियाओं आदि से थक कर निढाल हो जाता है। या यूँ भी कहा जा सकता है कि दिवस चेतनाशून्य हो जाता है। यह विचार केवल कुछ हिंदी दिवस की देन नहीं है बल्कि अनवरत यही सिलसिला चलते चला आ रहा है। भाषा की इस तपिश को हमारा देश देख रहा है, समझ रहा है तथा एक सार्थक और सकारात्मक परिवर्तन की बाट जोह रहा है। राजभाषा से जुड़े अधिकांश लोगों का ध्यान हिंदी दिवस पर तथाकथित राजभाषा हिंदी की ओर नहीं जा पाता है। अपनी-अपनी हिंदी दिवस की व्यस्तताओं के बीच थकी हुई सी राजभाषा की ओर देखने का समय कहॉ? कृपया इन चंद पंक्तियों से किसी कुंठा या नकारात्मक उर्जा की ओर न जांए,यह तो एक ऐसा दर्द है जिसे छुपा पाना असंभव है और यह किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति पा ही लेता है।

आख़िर हिंदी दिवस को शाम होते-होते राजभाषा थकी सी क्यों लगती है? इस प्रश्न से पहले यह विचारणीय है कि थकान होती किसे है, राजभाषा को अथवा व्यक्ति विशेष को? राजभाषा की थकान से क्या तात्पर्य निकाला निकाला जाए? अरे, इतने सारे प्रश्न अचानक मन में क्यों उभर रहे हैं? यह क्या? भाषा के प्रश्न पर मन इतना बेसब्र क्यों हो जाता है ? ऐसा लगता है कि इस विषय पर मन खुल कर बहस करने को तैयार है। पर बहस,चर्चाऍ तो होती रहती हैं,फिर यह आस कैसी? यह तो एक सोच मात्र है, इसपर बहस या चर्चा तो केवल हिंदी दिवस को ही सम्भव है अन्यथा शेष दिवसों में सुध ही नहीं आती। यूँ तो यह बहुत पुराना और घिस चुका वाक्य है यह फिर भी प्रासंगिक है। हिंदी दिवस को थकान तो व्यक्ति को होती है बल्कि राजभाषा तो सतत निखरती जाती है तथा शाम ढलते-ढलते वह दीप्ति व उर्जा की प्रखरता पर होती है।

हिंदी दिवस एक दिखावा है, राजभाषा का दुख प्रदर्शन है, घड़ियाली आंसू है, एक दिन हिंदी का शेष दिन अंग्रेज़ी का आदि अनेकों वाक्य हैं जो राजभाषा की प्रतिकूल टिप्पणियों से भरपूर हैं। यह सारे वाक्य हिंदी दिवस को या उसके आस-पास निकलते हैं मानों किसी खोह से नकारात्मक उर्जा निकल आयी हो। कौन गढ़ता है ऐसे वाक्य? सरल उत्तर है, हम लोगों में से ही कोई एक, जिसका प्रयोग अन्यों द्वारा किया जाता है। यहॉ प्रश्न उभरता है कि यह "एक" और "अन्य" कौन लोग हैं? राजभाषा को नकारात्मक उर्जा की चादर से ढंकने की कोशिश करनेवाले कौन लोग हैं? क्या यह वे लोग हैं जिन्हें राजभाषा नहीं आती है? यह एक बेतुका सवाल लगता है। राजभाषा सभी कार्यालय कर्मियों को आती है विशेषकर विभिन्न सरकारी कार्यालयों के कर्मचारियों को। यदि किसी को नहीं आती है तो वे गंभीरतापूर्वक सीखने का प्रयास करते हैं। सत्य तो यह है कि नकारात्मक बोल बोलनेवाले राजभाषा के बारे में कुछ जानते नहीं या अधूरी जानकारी रखते हैं।

हिन्दी दिवस पर प्रायः जिस हिन्दी की चर्चा होती है वह ना तो अखबारी हिन्दी है, ना तो बोलचाल की हिन्दी है और ना ही विभिन्न मनोरंजन के केन्द्रों की हिन्दी है। इस दिवस पर चिंता जिस हिन्दी की होती है वह है कामकाजी हिन्दी। विभिन्न मंत्रालयों, सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में जिस गति से अँग्रेजी का प्रयोग किया जा रहा है वह गति राजभाषा को नहीं मिल पा रही है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि राजभाषा को अँग्रेजी जैसी गति ना मिल पाने का मूल कारण क्या है? 14 सितंबर 1949 से लगातार राजभाषा को सिंचित किया जा रहा है परंतु प्रायः कोंपल तक ही आकार राजभाषा रुक जाती है। क्या कभी राजभाषा कार्यान्यवन की गहन समीक्षा की गयी है? क्या इस बात का अंदाज़ा लगाने की कोशिश की गयी है कि कहीं राजभाषा केवल सांविधिक अपेक्षाओं तक तो सिमट कर नहीं रह गयी है? हिन्दी की तो बहुत चर्चाएँ-परिचर्चाएँ होती हैं किन्तु राजभाषा अब तक कार्यालय की चौखट से बाहर कदम नहीं रख सकी है? आवश्यकता है कि हिन्दी दिवस पर कार्यालय की हद से बाहर  राजभाषा पर भी गहन और व्यापक चर्चा हो। जिस दिन से राजभाषा पर व्यापक निगरानी शुरू हो जाएगी उसी दिन से राजभाषा पुष्पित और सुगंधमयी लगाने लगेगी और हिन्दी संपूर्णता में समर्थ हो जाएगी।


हिंदी दिवस के अवसर पर बिना किसी विवाद में उलझे हुए यह अभिलाषा है कि भारतीय संविधान की राजभाषा नीति का मनोयोगपूर्वक कार्यान्वयन हो, राजभाषा विषयक निर्णयों,दिशानिर्देशों आदेशों आदि को अपनाया जाए, कामकाजी हिंदी के रूप में राजभाषा की प्रकृति, अंदाज़ तथा तेवर की पहचान सबको हो जाए और हिंदी साहित्य तथा राजभाषा को एक ही नज़रिए से देखने में तब्दीली आ जाए। हिंदी दिवस के अवसर पर राजभाषा से सीधे जुड़े सभी लोग राजभाषा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अपनी कर्मठता से कार्यरूप में सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर सकें। हिंदी दिवस के पावन अवसर पर बस यही अभिलाषा है।

धीरेन्द्र सिंह.

शनिवार, 22 अगस्त 2009

राजभाषा के राग

राजभाषा को देश अभी भी समझ रहा है। इस समझ में ऊभरे नए-नए विचारों की नई-नई बोलियॉ होती हैं पर सबसे मज़ेदार बात यह है कि इन बोलियों के भाव दशकों पुराने होते हैं। चूँकि राजभाषा हिन्दी को अभी भी हमारा देश समझने में की प्रक्रिया में है इसलिए इन रागों को अब भी वैसे ही सुना जाता है जैसे दशकों पहले सुना जाता था। इस प्रक्रिया में वक्ता और श्रोताओं में बौद्धिक गम्भीरता का दर्शन सहज ही हो जाता है। न तो राजभाषा के राग अलापने वाले थके और न ही श्रोता उकताए हैं। यूँ तो सम्पूर्ण वर्ष इस तरह के दिलकश नज़ारे मिल जाते हैं किंतु सितम्बर माह में इसकी धूम रहती है। आईए कुछ महत्वपूर्ण और व्यापक प्रसारित राजभाषा रागों से परिचित हो लें –

हठवादी राग – यह राग उन लोगों में ज्यादा लोकप्रिय है जिन लोगों ने भारत के संविधान में राजभाषा के अनुच्छेदों को न तो पढ़ने की ज़हमत उठाई है या / और न इसे समझने की कोशिश की है। यह राग हिन्दी को पूरे देश में तत्काल अनिवार्य रूप से करने की बात कहता है तथा इस राग का मानना है कि क्रमबद्ध रूप से धीरे-धीरे हिन्दी को लागू करने की बात एक औपचारिकता है जिससे हिन्दी नहीं आएगी। सरकार आज से इसे अनिवार्य कर दे तो कल से पूरे देश में राजभाषा लागू हो जाएगी और अपने विचारों के समर्थन में वही पुराना नाम कमाल पाशा का उदाहरण जोशीले अंदाज़ में प्रस्तुत कर देते हैं। इस हठवादी राग में जोश बेलगाम होता है जिससे श्रोतागण तालियॉ खूब बजाते हैं।

सुधारवादी राग – इस राग के समर्थक हमेशा बौद्धिक परिवेश में जीने के चिन्तन से ग्रसित रहते हैं तथा सहजतापूर्वक दूसरों में गलतियॉ ढूँढ लेना इनकी एक प्रमुख विशेषता होती है। राजभाषा नीति का पठन किए हुए इस राग में बोलने वाले हमेशा इतिहास में हुई गलतियों की चर्चा करते हैं। इनका दृढ़ मत होता है कि संविधान निर्माण के समय ही हिन्दी को अनिवार्य कर देना चाहिए था। राजभाषा को लागू करने का यह प्रयास एक अंतहीन सिलसिला है तथा उस समय के नेताओं की अदूरदर्शिता है। इस राग को अलापने वालों के व्याख्यान पर तालियॉ नहीं बजतीं जिसे एक गम्भीर बौद्धिक परिवेश के चिंतन का क्षण समझने के भ्रम में ऐसे वक्ता स्वंय में खुश हो लेते हैं।

राष्ट्रवादी राग – प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक ध्वज, अपनी भौगोलिक सीमाऍ तथा अपनी भाषा होती है जो राष्ट्र की अस्मिता की एक सशक्त पहचान होती है, इस विचार को कट्टरतापूर्वक मानने वाले लोग राष्ट्रवादी राग के अनुयायी होते हैं। इनका यह मानना रहता है कि राष्ट्र के प्रति इनकी लगन, इनकी सोच तथा इनका समर्पण सर्वश्रेष्ठ है जबकि कुछ ना कुछ कमी देश के अन्य नागरिकों में है। इनके सम्बोधन में राष्ट्र की आजादी के समय के क्रांतिकारियों का उल्लेख अवश्य रहता है। यह लोग बेधड़क बोल जाते हैं कि जिस देश की अपनी भाषा नहीं वह देश सही मायनों में स्वतंत्र देश ही नहीं है। इनके अनुसार देश के कामकाज में अंग्रेज़ी का प्रयोग बौद्धिक गुलामी का प्रतीक है। ऐसे लोग लॉर्ड मैकाले का उल्लेख करना नहीं भूलते तथा प्रश्नांकित तालियों को सुनकर अपने संबोधन पर धन्य-धन्य हो जाते हैं।

चिंतनवादी राग – इस राग में बोलनेवाले लोग सामान्यतया ऊँचे ओहदेवाले होते हैं। प्राय: इन्हें मंच पर सम्माननीय स्थान प्रदान किया जाता है। गंभीर चेहरा लिए एक गहरे चिंतन की मुद्रा इनकी शैली भी होती है और अदा भी होती है। इनका कहना है कि स्वतंत्र देश में अपनी भाषा के लिए दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा, माह मनाना एक दुखद स्थिति है जिसपर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हिंदी दिवस के स्थान पर हम अंग्रेज़ी दिवस मनाऍ। श्रोताओं के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि बात हिंदी के पक्ष में हो रही है या अंग्रेज़ी के पक्ष में, इसके बावजूद भी वक्ता को भरपूर तालियों से नवाज़ा जाता है।

संतुलनवादी राग – इस राग का वक्ता त्रिभाषा सूत्र का हिमायती होता है इसलिए हिंदी के साथ-साथ यह स्थानीय भाषा के अतिरिक्त दक्षिण की एक भाषा की भी बात करता है। इस वक्ता के मन में क क्षेत्र के प्रति एक आक्रोश रहता है अतएव इस वक्ता की दलील रहती है कि क क्षेत्र के राज्यों को अपने पाठ्यक्रम में दक्षिण की एक भाषा को सम्मिलित करना चाहिए। इनके मतानुसार यदि गंभीरतापूर्वक त्रिभाषा सूत्र को लागू कर दिया जाए तो राजभाषा कार्यान्वयन संपूर्ण राष्ट्र में सुगमतापूर्वक संपन्न होगा।

समन्वयवादी राग – इस चिंतन के वक्ता वसुधैव कुटुंबकम के अंधी श्रद्धा लिए होते हैं। इनकी यह मान्यता है कि काम हो जाना चाहिए भाषा के झमेले में पड़ने से क्या हासिल होगा। हिंदी बोलो, अंग्रेज़ी बोलो या किमकोई और भाषा यदि आपकी बात सामनेवाला समझ ले रहा है तो यह काफी है। भाषा का महत्व केवल सम्प्रेषण है। भाषा को सब्यता और संसेकृति से जोड़ना मानसिक अल्पज्ञता के सिवा कुछ नहीं। इन आधुनिक चिंतको का यह कहना है कि हिंदी को यदि रोमन लिपि में भी लिखा जाए तो क्या हर्ज़ है। हिंदी फिल्मों के संवाद तथा उनका प्रचार-प्रसार रोमन लिपि में धड़ल्ले से हो रहा है। यह एक सा उदाहरण है जो भविष्य की हिंदी की ओर ईशारा कर रहा है। आधुनिक युग कारोबार विकास और संपन्नता की ओर उन्मुख है तथा इसमें भाषा, लिपि आदि पर विचार, संगोष्ठियॉ, चर्चाऍ आदि वक्त की बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं। हतप्रभ श्रोता असमंजस में डूबे रहते हैं तथा ताली बजाना कुछ को याद रहता है, कुछ भूल जाते हैं। इस समन्वयवादी वक्ता को लगता है कि जनमानस के चिंतन को इन्होंने बखूबी झकझोड़ दिया है।

इस प्रकार के कई राग हैं जो हर वर्ष सितंबर महीने में गाए जाते हैं, सुनाए जाते हैं, भाषिक बौद्धिकता के मंच पर भुनाए जाते हें। राजभाषा हिंदी को जम कर खरी-खोटी सुनाई जाती है, नए वायदे किए जाते है, पुराने आश्वासनों को मानसिकता में परिवर्तन न होने के कारण तार्किक चादर से खूबसूरती से ढंक दिया जाता है, राजभाषा अधिकारी या हिन्दी अधिकारी को इस विषय के एक प्रमुख और एकमात्र अभियुक्त के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तथा भिन्न-भिन्न शब्दावलियों से सम्बोधित किया जाता है, व्यक्तित्व मंडन किया जाता है। सितंबर का महीना बीतते ही राजभाषा की चर्चा फिर एक साल के लिए बंद हो जाती है। एक पर्व की तरह राजभाषा उत्व आता है और चला जाता है। सितंबर का महीना है चलिए एक नया राग ढूंढा जाए ।

धीरेन्द्र सिंह.

बुधवार, 29 जुलाई 2009

भाषा युद्ध

प्रत्येक राष्ट्र के भाषाविद्, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता आदि एक स्वर में मातृभाषा में ज्ञानार्जन तथा अभिव्यक्ति को महत्व देते रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक कारणों से यह संभव नहीं हो पाता कि प्रत्येक व्यक्ति की मातृभाषा को व्यापक प्रचार-प्रसार मिले इसलिए उस देश की कुछ भाषाओं को ही वह स्थान प्राप्त हो पाता है जहॉ से वह भाषा लिखित और मौखिक प्रयोगों में अपनी उपयोगिता प्रमाणित करती है। इस प्रकार भाषाऍ अपनी क्षमताओं में निरन्तर विकास करती जाती हैं तथा प्रत्येक क्षेत्र की अभिव्यक्ति को बखूबी बयॉ करती रहती है। भाषा अपनी तमाम विशेषताओं के संग अपनी वर्चस्वता को भी बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहती है। आधुनिक युग में भाषा की सहजता, सुगमता और सहज स्वीकृति उतनी चुनौतीपूर्ण नहीं है जितनी चुनौतियॉ भाषा की वर्चस्वता के लिए है। अपने राष्ट्र की परिधि से निकल भाषा जितने अधिक अन्य राष्ट्रों में जाएगी वह भाषा उतनी ही सशक्त और सक्षम मानी जाएगी। उन्नत और उन्नतशील राष्ट्रों में भाषा की वर्चस्वता को लेकर एक अघोषित युद्ध जारी है।

यह अघोषित युद्ध दूसरे राष्ट्रों की भाषाओं के नकार जनित नहीं है बल्कि इस युद्ध का एकमात्र लक्ष्य अपनी भाषा की वर्चस्वता को स्थापित कर अपनी एक विशेष पहचान बनाना है। यह युद्ध भाषा की दृष्टि से ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टि से भी एक सकारात्मक युद्ध है जिसमें इन्टरनेट की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। सिमटते विश्व में एक राष्ट्र अपनी भाषा का प्रचार-प्रसार कर दूसरे देशों की प्रतिभाओं को अपने देश में आकर्षित करने का वैश्विक परम्परागत प्रयास करता है। विकासशील और विकसित दोनों राष्ट्र इस क्षेत्र में काफी तेजी से सक्रिय हैं तथा खामोशी से भाषा का युद्ध जारी है। यह युद्ध केवल राष्ट्रों के बीच नहीं है बल्कि अधिकांश बहुभाषी देशों में भी है जहॉ पर राष्ट्र की एक भाषा से दूसरी भाषा से लड़ाई है अर्थात राष्ट्र के भीतर भी वर्चस्वता के लिए भाषाऍ लड़ रही हैं। आए दिन समाचारों में भाषा विषयक इस प्रकार के समाचार मिलते रहते हैं।

इस युद्ध में तत्परतापूर्वक सिर्फ निर्णय ही नहीं लिया जा रहा है बल्कि निर्णय के कार्यान्वयन हेतु पहल और प्रयास भी हो रहा है। हाल ही में मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री मुह्यीद्दीन यासीन ने घोषणा कर दी कि वर्ष 2012 से विद्यालयों में गणित तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी भाषा में नहीं दी जाएगी बल्कि अंग्रेज़ी के स्थान पर चीनी या तमिल भाषा में शिक्षा प्रदान की जाएगी। इस प्रकार भाषा की एक जोरदार बहस मलेशिया में छिड़ गई तथा अंग्रेजी से चीनी तथा तमिल भाषा का संघर्ष आरम्भ हो गया। इस युद्ध का परिणाम मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री की घोषणा में सहजता से पाया जा सकता है। नेपाल ने भी भाषा का एक स्पष्ट युद्ध छेड़ दिया है। नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम उप-राष्ट्रपति परमानन्द झा द्वारा हिंदी में ली गई शपथ को अमान्य करते हुए उन्हें फिर से नेपाली भाषा में शपथ लेने के लिए कहा है। क्या यह दो उदाहरण भविष्य में भाषा के युद्ध में वृद्धि के संकेत नहीं दे रहे हैं ? यदि संशय है तो निम्नलिखित आंकड़े तस्वीर को और साफ करने में सहायक होंगे –

कुल फीचर फिल्मों की संख्या कुल दर्शकों की संख्या (करोड़ में)
भारत 1,132 3,290
यू।एस। ५२० १३६४
चीन ४०० १९६
फ्रांस 240 १९०
जर्मनी 185 129
स्पेन १७३ 108
इटली १५५ 108
रिप. ऑफ़ कोरिया ११३ 151
यू।के। १०२ 164

उक्त आंकड़ों में भारत ने वर्ष 2007 में कुल 1132 फीचर फिल्मों का निर्माण किया जिसमें मुंबई, हैदराबाद तथा चेन्नई में निर्मित फिल्में हैं। भारत में निर्मित फिल्मों की संख्या यू.एस., चीन तथा फ्रांस में निर्मित की कुल फिल्मों के बराबर है। यहॉ अचानक फिल्मों की चर्चा से आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह भी भाषा युद्ध का एक हिस्सा है। जितनी अधिक फिल्में होंगी भाषा का विपणन उतना ही अधिक होगा। भाषा का विपणन भाषा युद्ध का एक अभिन्न हिस्सा है। फिल्में एक भाषा विशेष तथा संस्कृति के आधार और क्षमता को बनाए रखती हैं और उसमें निरन्तर विकास करते रहती हैं। भारत देश में इतनी अधिक संख्या में फिल्मों का निर्माण भारतीय भाषा की पहुँच को विश्वस्तर तक ले जाने का भी एक प्रयास है। कला और संस्कृति से भाषा इतनी गहराई से जुड़ी है कि इनका एक अटूट पैकेज है।

इस भाषा युद्ध में यदि दक्षिण एशिया की चर्चा की जाए तो चीन सर्वोत्तम है तथा इसकी कोई मिसाल नहीं है। अपनी पहचान, अपनी बेहतर छवि तथा अपनी वर्चस्वता के लिए जारी इस भाषा युद्ध में भारत भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज किए है जिसमें फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। यूनिकोड की उपयोगिता में वृद्धि से इंटरनेट पर भी देवनागरी की सहज पैठ बन गई है जिससे हिंदी की लोकप्रियता को एक नया आधार मिला है।। भाषा का नकार तथा स्वीकार जारी है तथा इस युद्ध में भाषाऍ एक नए रूप में अभिव्यक्ति के नए अंदाजों सहित प्रस्फुटित हो रही है।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 1 जुलाई 2009

भाषा के दृष्टिकोण से भारत और चीन

दक्षिण एशिया में सुपर पॉवर बनने की होड़ भारत और चीन के मध्य जारी है तथा दोनों देश समय-समय पर अपनी वर्चस्वता का दावा करते रहते हैं। सुपर पॉवर बनने के लिए किसी भी देश को सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक आदि क्षेत्रों में अपनी वर्चस्वता बनानी पड़ती है तथा इस वर्चस्वता के प्रयासों में भाषा के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। भारत और चीन दोनों बहुसंख्यक और बहुभाषी देश हैं तथा दोनों देशों की अपनी राजभाषा है। हिंदी भारत की राजभाषा है तथा मन्दारिन चीन की राजभाषा है परन्तु दोनों देशों की राजभाषाओं में काफी समानताऍ हैं। भारत की राजभाषा हिंदी अभी भी कार्यान्वयन की स्थिति में है जबकि चीन की राजभाषा मन्दारिन चीन की धड़कनों को अभिव्यक्त करने का सर्वप्रमुख माध्यम है। भारत में अंग्रेजी भाषा का भी बोलबाला है जबकि चीन में मन्दारिन तथा अन्य चीनी भाषाओं का ही प्रयोग होता है।

चीन की अन्य विशेषताओं में से एक प्रमुख विशेषता चीनी भाषा में संपूर्ण शिक्षा प्रदान करना है। बारम्बार विभिन्न मंचों से कहा जाता रहा है कि मातृभाषा में शिक्षा प्रतिभा विकास में अत्यधिक सहायक सिद्ध होती है। भारत में भी मातृभाषा में शिक्षा पर बल दिया जाता है परन्तु अंग्रेजी भाषा यहाँ लोगों को मोहित करती नज़र आती है। चीन में अपनी भाषा के प्रति आदर सराहनीय है तथा चीनी भाषा के प्रति सजग भी प्रतीत होते हैं। भाषा के प्रति सम्मान भारत में भी है। चीन के पेकिंग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष श्री जियांग जिंगूकी का कहना है कि “ मेरे को ” शब्द का प्रयोग भारतीय क्यों करते हैं यह अशुद्ध है ‘मेरे को’ के स्थान पर ‘मुझको’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। चीन अब विदेशी भाषाओं में भी अपनी दख़ल बनाने में लग गया है। चीनी हिंदी सीखने में भी पीछे नहीं हैं। भाषा के प्रति ऐसी ललक भारत में बहुत कम दिखलाई पड़ती है। भारत देश में भाषा विषयक मुद्दों पर व्यापक सार्वजनिक चर्चाऍ नहीं हो पाईं यद्यपि आंदोलन अवश्य हुए जिसने भाषा की सोच की प्रक्रिया को तितर-बितर कर दिया।

भारत में चीन के किसी भाषा या मन्दारिन का किस स्तर तक अध्ययन किया जा रहा है तथा चीनी भाषाओं की भारत में क्या संभावनाऍ हैं इसपर जानकारियॉ सहज रूप से अनुपलब्ध हैं जबकि इससे विपरीत चीन में हिंदी को लेकर एक उत्साहजनक स्थिति है। वर्तमान में लगभग सात करोड़ स्नातक नौकरी की तलाश में हैं फिर भी चीन के कैम्पस में हिंदी तथा अन्य भाषाओं के अध्ययन करनेवालों के लिए नौकरी के प्रस्ताव आ रहे हैं। क्या भारत में भाषाओं के प्रति इस प्रकार की संचेतना है। चीन में हिंदी भाषा सीखनेवाले विद्यार्थियों ने अपना नाम हिंदी में लिखकर अपनी एक वैकल्पिक पहचान बनाई है। इन विद्यार्थियों के नाम अजय, सागर, विष्णु आदि हैं तथा यह भारतीय संस्कृति का अध्ययन करते हैं और रामायण और महाभारत सीरिअल देखते हैं। भारत को गहराई तक जानने की यह ललक यह दर्साती है कि चीन में हिंदी की काफी संभावनाऍ हैं। पिछले वित्तीय वर्ष के आर्थिक मंदी के बावजूद भी भारत तथा चीन के बीच कारोबार 34 प्रतिशत रहा किंतु दोनों देशों के व्यापारी शायद ही एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति को समझ पाते हैं। वर्तमान में चीन के सात हिंदी विभागों में लगभग 200 विद्यार्थी हिंदी का अध्ययन कर रहे हैं।

भारत में भाषा का अध्ययन या तो शिक्षण के लिए होता है या फिर मीडिया के लिए। भाषा की अन्य विधाओं की और रूझान अधिक नहीं है। हिंदी प्रमुखतया साहित्य, मनोरंजन और मीडिया की भाषा बनी हुई है तथा इसके विस्तार की आवश्यकता है। शिक्षा में हिंदी की प्रभावशाली उपस्थिति अभी भी नहीं है, प्रशासन में इसकी उपयोगिता में प्रगति धीमी है, राजभाषा के रूप में अपनी छवि बनाने में प्रयत्नशील है आदि कई क्षेत्र हैं। समस्या हिंदी भाषा की क्षमता की नहीं है बल्कि उलझन हिंदी के उपयोगिता की है। मन्दारिन भाषा में प्रयोग किए जानेवाले कुल शब्द 500,000 से भी अधिक हैं जबकि हिन्दी में शब्दों की संख्या 120,000 है। इंटरनेट पर चीनी भाषा प्रयोग करनेवाले 321 करोड़ लोग हैं तथा यह विश्व की दूसरी भाषा है किंतु इंटरनेट की श्रेष्ठ 10 भाषाओं में हिंदी का नाम नहीं है। चीन की भाषागत सोच आधुनिक है तथा भविष्य के लिए चीन अपनी तैयारियॉ कर रहा है और उसका इज़हार भी कर रहा है। भारत में भाषागत ऐसी खनक नहीं है।

धीरेन्द्र सिंह.

रविवार, 21 जून 2009

हिंदी-राष्ट्र की धड़कन-राष्ट्र की सोच.

भारत देश में आम बोलचाल की भाषा, फिल्मों तथा दूरदर्शन के निजी चैनलों पर चटखती-मटकती हिंदी, राष्ट्र की धड़कनों को बखूबी बयॉ कर रही है परन्तु यह हिंदी राष्ट्र की सोच को अभिव्यक्ति नहीं कर पा रही है। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र की धड़कनों और राष्ट्र की सोच के मध्य एक लंबा अन्तराल निर्मित हो गया है। यह अन्तराल हिंदी की धड़कनों (हिंदी के अध्यापक, रचनाकार आदि) को हिंदी की सोच (व्यावसायिक, राजनैतिक, विधिक, नीतिपरक आदि) से मिलाने में बाधक है। लोकप्रिय हिंदी (बोलचाल, मीडिया, फिल्में, साहित्यिक आदि) और राजभाषा हिंदी, रेल की पटरियों की तरह सामानान्तर हैं जिनके मिलन का प्रयास अत्यावश्यक है। हिंदी की लोकप्रियता भाषा की पराकाष्ठा की और है तथा हिंदी के इस विधा में लगातार नवीनताऍ और विभिन्नताऍ जुड़ती जा रही हैं। विश्व की प्रमुख भाषाओं को चुनौती देती हिंदी का कमज़ोर पक्ष है राष्ट्र की सम्पूर्ण सोच का वाहक बनना। वर्तमान में राजभाषा के रूप में हिंदी की चुनौती राष्ट्र की संपूर्ण सोच को अभिव्यक्ति प्रदान करने के अधिकार को प्राप्त करना है।

वर्तमान विश्व में उन्नत राष्ट्रों की विभिन्न विशिष्टताओं में उनकी अपनी भाषा का पल्लवन भी एक प्रमुख विशेषता है। एक राष्ट्र किसी भी दूसरे राष्ट्र के विकसित भाषा को स्वीकार कर अपनी माटी की विश्व पहचान नहीं करा सकता यह अनेकों माध्यमों से प्रमाणित हो चुका है। इसके बावजूद भी हिंदी के राजभाषा स्वरूप को लेकर तर्क-कुतर्क जारी है जिससे राजभाषा हिंदी की हानि हो रही है। बैकिंग, बीमा, आयकर, सीमा शुल्क, प्रौद्योगिकी, रसायन, विधि आदि की भिन्न-भिन्न शब्दानलियॉ हैं जिनको आम हिंदी की शब्दावलियों के द्वारा अभिव्यक्त करना कठिन है। यह केवल हिंदी के साथ नहीं है बल्कि विश्व की सभी उन्नत भाषाओं के साथ ऐसा ही होता है। ज्ञातव्य है कि प्रत्येक भाषा में बोलचाल की भाषा, मीडिया की भाषा, साहित्यिक भाषा और कामकाजी भाषा में अन्तर होता है। सड़कों पर प्रयुक्त शब्दावली जनहित के कार्यालयों की शब्दावली नहीं बन सकती, कार्यालयों की शब्दावली विधि की शब्दावली नहीं बन सकती, विधि की शब्दावली प्रौद्योगिकी की शब्दावली नहीं बन सकती यद्यपि न सभी में हिंदी अपनी स्वाभाविक पहचान के साथ अवश्य रहती है। हिंदी शब्दावलियों की इतनी विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं का विकास करना अत्यावश्यक है। हिंदी के परम्परागत साहित्य (कहानी, कविता आदि) को छोड़ दें तो शेष विषयों पर कितना लिखा जा रहा है और क्या लिखा जा रहा है, यह सोच का विषय है।

विश्व की अन्य विकसित भाषाओं में न केवल तथाकथित साहित्य बल्कि अन्य विषयों पर खूब लिखा जाता है, मौलिक लिखा जाता है। हिंदी अब भी अनुवाद के सहारे चल रही है। यह तथ्य है कि प्रौद्योगिकी में कुछ समय तक अनुवाद पर निर्भर रहना पड़ेगा किन्तु अन्य क्षेत्रों में तो मौलिक लिखा जा सकता है। यहॉ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अन्य क्षेत्रों से क्या तात्पर्य है। मेरा आशय विभिन्न सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों आदि के विभिन्न विषयों पर हिंदी में मौलिक रूप से लिखना। यदि इस तरह का मौलिक लेखन व्यापक स्तर पर नहीं किया जाएगा तो राष्ट्र की सोच की संवाहिनी हिंदी कैसे बन सकेगी। इन क्षेत्र में हिंदी में जो भी लिखा जा रहा है उसमें अधिकांश अनुवाद है. क्या राजभाषा को अनुवाद की भाषा होना चाहिए ? यहॉ प्रश्न ऊभरता है कि कठिनाई क्या है ? कठिनाई सिर्फ यह है कि इस दिशा में न तो पहल हो रही है और न ही सवाल किए जा रहे हैं अलबत्ता राजभाषा के कार्य से जुड़े लोगों पर छींटाकशी की जाती है। राजभाषा कार्यान्वयन के लिए एक जनमत की आवश्यकता है। राजभाषा विकसित हो चुकी है, सक्षम हो चुकी है परन्तु खुलकर प्रयोग में नहीं लाई जा रही है। हिंदी राष्ट्र की धड़कन तो बन चुकी है परन्तु राजभाषा अब भी राष्ट्र की सोच की भाषा बनने की प्रतीक्षा कर रही है। और कितनी प्रतीक्षा ? इसका उत्तर और कहीं नहीं हमारे पास है, हम सबके पास।

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 15 जून 2009

भाषाई जाल - अस्तित्व और अस्मिता

भारत देश की परम्परा में वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धान्त पल्लवित होते रहता है जिसे भूमंडलीकरण ने और गति प्रदान की है। वसुधैव कुटुम्बकम पूरे ब्रह्मांड को एक परिवार के रूप में मानता है जिसके अनेकों कारण हैं। आज मानव यह बखूबी अनुभव करने लगा है कि दुनिया सिमटती जा रही है और व्यक्ति इस दुनिया में एक नए विस्तार में जीने लगा है। सात समंदर पार जाना अब स्वप्न नहीं रह गया है। यह मानवीय क्रांति भूगोल, समाजशास्त्र, साहित्य, कारोबार आदि को गहराई से प्रभावित करने लगा है जिसमें अभिव्यक्ति विशाल चुनौतियों से गुज़र रही है। दो सुदूर देशों के व्यक्तियों का मिल पाना तो आसान है किन्तु उनकी आपसी बातचीत आसान नहीं है। कल तक अंग्रेज़ी को विश्वभाषा मानने का विश्वास वसुधैव कुटुम्बकम के यथार्थ ने बखूबी तोड़ा है। अब अंग्रेजी के अतिरिक्त भी विदेशी भाषाएं सीखने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।

भाषा के इस द्वंद्व का ताजा अनुभव आई.पी.एल. मैच के दौरान हुआ। विश्व के कई देशों के खिलाड़ी एक टीम में खेल रहे थे इसमें से किसी को अंग्रेज़ी भाषा के सिवा अन्य भाषाओं की जानकारी नहीं थी तो कोई हिंदी नहीं जानता था तथा किसी को ना तो अंग्रेज़ी आती थी और ना ही हिंदी का ज्ञान था। इस विकट परिस्थिति में आपस में बातें भी स्पष्ट नहीं हो पातीं थीं जिससे अक्सर यह होता था कि कहा कुछ जाता था और समझा कुछ जाता था जिसके परिणामस्वरूप टीम का कार्यनिष्पादन प्रभावित होता था और आपसी ताल-मेल पर भी प्रतिकूल असर पड़ता था। यही स्थिति सैलानियों के साथ भी होता होगा, व्यापार में भी इस भाषा दीवार से खासी दिक्कतें पैदा होती होंगी। ऐसी स्थिति में भारत देश की कौन सी भाषा प्रयोग में लाई जाती है ? उत्तर सर्वविदित है – अंग्रेजी। यह अंग्रेजी विश्व के कितने देशों में सफल सम्प्रेषण में सहायक होती है ? इस बारे में अनेकों आंकड़ें, कथ्य-तथ्य आदि हैं परन्तु इन सबके बावजूद भी विश्व के आधे देशों तक में अंग्रेज में सफल सम्प्रेषण नहीं किया जा सकता है। फिर हिंदी को क्यों छोड़ दिया गया है। गीत-संगीत, मनोरंजन, भाव-निभाव आदि में जिस हिंदी का वर्चस्व है वह कारोबार, वैश्विक संपर्क में मूक क्यों हो जाती है ?

भाषाई जाल तथा अस्तित्व अस्मिता का एक ताज़ातरीन उदाहरण अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के 2 मई, 09 के मुंबई संस्करण में पढ़ने को मिला। वर्ष 2010 में दिल्ली में आयोजित होनेवाले कॉमनवेल्थ खेलों के लिए भिखारियों ने विदेशी भाषाओं को सीखना आरम्भ कर दिया है। यह एक चौंकानेवाली सूचना है क्योंकि अशिक्षित भिखारी कैसै विदेशी भाषा सीख सकते हैं ? समाचार में यह सूचना दी गई थी कि अनुभवी भिक्षुक राजू सांसी दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र में एक विद्यालय खुले आसमान के तले चला रहा है जिसमें चयनित 45 बच्चों को भीख मांगने के ज्ञान और गुर को सिखाया जा रहा है जिससे इन बच्चों के भीख मांगने के कौशल में वृद्धि हो सके। इसके अतिरिक्त दिल्ली के पटेल नगर की कटपुतली कॉलोनी में पतलू द्वारा दूसरा विद्यालय चलाया जा रहा है जिसमें विदेशी भाषाओं के प्रमुख शब्दों और वाक्यों के साथ-साथ वास्तविक विदेशी करेंसी रूपयों की सही पहचान का भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इन भिखारियों को सिखाई जानेवाली प्रमुख भाषाएं अंग्रेजी, फ्रेंच तथा स्पैनिश हैं। रोटी के साथ भाषा का मेल काफी पुराना हो चला है अब तो संपन्नता के साथ भाषा के मेल का दौर चल पड़ा है जिसमें कई स्तरों पर उपेक्षा जैसी त्रासदी के बीच भी हिंदी प्रगति कर रही है। कॉमनवेल्थ के इस खेल में भाषा का यह खेल कुछ लोगों को संपन्न अवश्य बनाएगा यह इन भिखारियों के परिप्रेक्ष्य में एक सटीक बात प्रतीत होती है।

भाषा के इस वैश्विक संघर्ष में हिंदी अपने अस्तित्व के लिए कितना प्रयासरत है इसकी व्यापक समीक्षा समय की मांग है। मीडिया और मनोरंजन के अतिरिक्त व्यापार तथा अंतर्राष्ट्रीय समारोहों आदि में जब तक हिंदी का खुलकर प्रयोग नहीं किया जाएगा तब तक हिंदी अन्य विश्व भाषाओं से प्रतिद्वद्विता करने के लिए स्वंय को सक्षम नहीं बना सकती है। यद्यपि हिंदी की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है लेकिन इन क्षमताओं का प्रभावशाली प्रदर्शन भी किया जाना अत्यावश्यक है। इसके लिए सम्पूर्ण देश में भाषागत जागरूकता की आवश्यकता है। भिक्षुकों द्वारा की जा रही अपनी भाषागत तैयारियॉ यह दर्शाती हैं कि यदि लक्ष्यपरक कार्य किया जाए तो भारत देश के विभिन्न कार्यालयों के कामकाज में हिंदी का प्रयोग न तो कठिन है और न हीं दोयम दर्ज़े का है। इन सबके बावजूद भी राजभाषा कार्यान्वयन को एक “राजू सांसी” तथा एक “पतलू” की तलाश है जिनमें राजभाषा कार्यान्वयन की दीवानगी भी हो तथा साथ ही साथ कामकाजी हिंदी की वास्तविक प्रगति के आकलन की दृष्टि भी हो। खेल का मैदान हो या कि कारोबारी दुनिया हर जगह हिंदी को ले जाने की ईच्छाशक्ति की आवश्यकता है। हिंदी हर क्षेत्र तथा हर विधा को बखूबी अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है तथा इसमें सतत विकास हो रहा है। भूमंडलीकरण में भाषाई जाल में हिंदी अपने अस्तित्व और अस्मिता का लड़ाई लड़ रही है तथा उसे आप जैसे योद्धा की आवश्यकता है। क्या आप तैयार हैं ?

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 8 जून 2009

हिंदी, मुकाबला और दिबांग

एनडीटीवी इंडिया ने दिनांक 06.06.2009 को रात्रि 8.00 बजे मुकाबला कार्यक्रम प्रस्तुत किया जिसका विषय था – “क्या अंग्रेज़ी हमारे देश में नई गुलामी की निशानी है ?” इस कार्यक्रम का संचालन श्री दिबांग कर रहे थे। विषय मेरी रूचि का था तथा मुझे लगा कि काफी शोध और मेहनत से यह कार्यक्रम बनाया गया होगा इसलिए मैंने इस कार्यक्रम को देखने का निर्णय लिया। विशेष उत्साह का कारण यह भी था कि एक निजी चैनल ने हिंदी विषय पर एक सामयिक कार्यक्रम तैयार किया है, मन पहले से ही इस चैनल को साधुवाद देने लगा। इस कार्यक्रम में भाग लेनेवालों का नाम हैं – राजेन्द्र यादव, आलोक राय, सुधीश पचौरी, देवेन्द्र मिश्र, सुहेल शेख, तरूण विजय तथा महेश भट्ट। हिंदी और अंग्रेजी की यह चर्चा मुझे भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मैच से कहीं ज्यादा रूचिकर और आकर्षक लगती है, हमेशा। उत्सुकता और उत्कंठा के बीच कार्यक्रम शुरू हुआ। कार्यक्रम में मैंने पाया कि दिबांग की रूचि सुहेल, आलोक तथा सुधीर में ज्यादा थी तथा शेष प्रतिभागियों से पूछने के लिए प्रश्न पूछ लिए जाते थे। कार्यक्रम के निर्माता-निर्देशक भी तो कार्यक्रमों में प्रत्यक्ष पर प्रभावी भूमिका निभाते हैं, केवल दिबांग का ही नाम क्यों ? केवल सुविधावश। कार्यक्रम की प्रमुख झलकियॉ, सहभागियों के शब्दों में -

सुहेल शेख ( विज्ञापन जगत के हैं) – वह ज़माना गया, कॉमर्स या नौकरी करनी है तो अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी है।अंग्रेज़ी सीखना ग़ुलामी है कहना ठीक नहीं है। हिंदी के कारण ही चैनल प्रभावी हैं।मुझे मातृभाषा पर गर्व है। अंग्रेज़ी की ज़रूरत हर समय ज़्यादा होगी। भारत में लोग अंग्रेज़ी जानते हैं, वह लाभ है। अंग्रेज़ी के पीछे कोई नहीं दौड़ रहा है। अपने मनोरंजन और कल्चरल सेटिस्सफेक्शन के लेहिंदी को देखते हैं।अंग्रेज़ियत को महत्व नहीं देना चाहिए। अंग्रेज़ी की जरूरत कमर्शियल टूल की तरह है। विज्ञापन की दुनिया ने हिन्दी को अब्यूज़ किया है।

आलोक राय ( हिंदी और अंग्रेज़ी के ज्ञाता) – अंग्रेज़ी को इतना महत्व द्नेना गुलामी की निशानी है। अंग्रेज़ी एक साधन है। अंग्रेज़ियत को समझने के लिए गहराई में जाना पड़ेगा। अंग्रेज़ी को लेकर नाराज़गी क्यों ? अंग्रेज़ी से ज्ञान, कविता, साहित्य मिलता है। भाषा को लेकर क्या नाराज़गी। जो अंग्रेज़ी नहीं जानते वो हिंदी भी नहीं जानते। अंग्रेज़ी की वर्चस्वता की जड़ें कहीं और हैं। हिंदी की विविधता कठिनाई नहीं है। वह हिंदी को संपन्न करती है। हिंदी का दुर्भाग्य है कि हिंदी के प्रतिनिधि के रूप में कुछ गलत लोग आए हैं। हिंदी को खास परंपरा से जोड़ा जाता है। भाषा को केवल व्यापार से नहीं देखना चाहिए। छोटे जगहों पर सोचें कि अंग्रेज़ी सीख लें वह नहीं होता है। सरकार बहुत कुछ कर सकती है, सोच-समझकर भाषा नीति अपनानी चाहिए। भाषा के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया पर नीति काम नहीं करती है, उसकी एक प्रक्रिया है।

सुधीश पचौरी – बिना हिंदी के अंग्रेज़ीवाला चल नहीं सकता। अंग्रेज़ीवालों से पूछो कि हिंदी उनकी ज़रूरत क्यों हो गई है। हिंदी में ठेकेदारी प्रथा है। हिंदी एक ग्लोबल भाषा है। हिंदी, साहित्य सम्मेलन की भाषा नहीं रह गई है। भाषा का ब्राह्मणवाद बंद कर देना चाहिए। हिंदीवाला सोचता है कि यदि फूंक भी मार दूंगा तो 5 करोड़ उड़ जेंगे इसलिए वह विनम्रता से मुस्कराते रहता है। हिंदी इन्क्लुयज़न (inclusion) की भाषा है। पंडितों की हर बात सरल नहीं होती है। बाषा तो जनता लाती है। भाषाएं एक-दूसरे में घुल-मिल जाती है जैसे आदमी-आदमी से मिल जाते हैं।

राजेन्द्र यादव – अंग्रेज़ी एक माध्यम है। अंग्रेज़ी गुलामी की निशानी थीऔर लड़न् का हथियार थी। स्वतंत्रता के युद्ध के समय का एटीट्यूड (attitude) भाषा को लेकर है, उसे छोड़ना चाहिए। अंग्रेजी वर्चस्व की भाषा है, सत्ता की भाषा है। 250 साल से अंग्रेज़ी हमारी भाषा हो गई है। हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू का देश में कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं है, घर नहीं है। सत्ता जो भाषा बोलेगी वह सब स्वीकारेंगे।

तरूण विजय – जर्मनी, इस्रार्ईल और ना चीन में अंग्रेज़ी में पढ़ाई होती है।

महेश भट्ट – अंग्रेज़ी को कम्यूनिकेशन टूल की अहमियत देनी चाहिए। भाषा को लेकर जब गौरव का अनुभव नहीं होता तब भाषा मर जाती है। बच्चा जब फर्स्ट स्टैंडर्ड में पढ़ता है तो भाषा संस्कृति लेकर आती है। वह जैक एंड ज़िल और बाबा ब्लैक शिप नहीं समझता है। यह सुपर पॉवर की ज़बान है, अपने माई-बाप की भाषा बोलना हमारी मजबूरी है। उसे देवी का दर्ज़ा नहीं देना चाहिए।

देवेन्द्र मिश्र (संस्कृत के विद्वान) – अंग्रेज़ियत में बुराई है अंग्रेज़ी में नहीं। भाषा के माइनस प्वांइट को छोड़ना चाहिए। संस्कृत को राजभाषा बनाने से विरोध नहीं होता।

उक्त चर्चाएं हुईं तथा बाद में इस चर्चा का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए दिबांग ने कहा कि – “अंग्रेज़ी का भारतीयकरण हुआ है तथा उसे देश की भाषा मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।“ एक हिंदी चैनल से अंग्रेज़ी के बारे में दी गई यह टिप्पणी एक सामान्य टिप्पणी नहीं की जा सकती है। यह दिबांग की सोच है चैनल की यह कहना आसान नहीं है परन्तु एक दशा और दिशा की और संकेत और समर्थन करनेवाला यह वाक्य, हिन्दी चैनलों की नई सोच को बखूबी दर्शा रहा है।

बुधवार, 3 जून 2009

हिंदी के इन सफेद हाथियों का सच.

राजभाषा अधिकारियों को निशाने पर ऱखना एक फैशन बन चुका है। जब जी में आता है कोई ना कोई विचित्र विशेषणों का प्रयोग करते हुए राजभाषा अधिकारियों पर उन्मादी छींटें उड़ा जाता है । इसी क्रम में एक नया लेख नवभारत टाइम्स, मुंबई संस्करण में दिनांक 29 मई 2009 को प्रकाशित हुआ। लेखक का नाम था – उदय प्रकाश, हिंदी साहित्यकार। हिंदी साहित्यकार शब्द का नाम के साथ प्रयोग से मेरा पहली बार सामना हुआ। लेख का शीर्षक था – "हिंदी के इन सफेद हाथियों का क्या करें।" इस लेख में कई बेतुके सवाल उठाए गए हैं जिनका उत्तर देना मैं अपना नैतिक कर्तव्य समझता हूँ इसलिए श्री उदय प्रकाश के इस लेख का क्रमवार परिच्छेद चयन कर मैं उत्तर दे रहा हूँ –

इस लेख के पहले परिच्छेद को कोट कर रहा हूँ – “सभी सरकारी विभागों में, पब्लिक सेक्टर की कंपनियों में और कई दूसरी जगहों पर भी भारी रकम खर्च करके राजभाषा हिंदी का ढांचा खड़ा किया गया है। इसमें ऊँची तनख्वाहों पर काम करने वाले लोग अंग्रेजी में तैयार कागज-पत्तर और दस्तावेजों का अनुवाद हिंदी में करने का स्वांग भरते हैं।“
उत्तर – उक्त परिच्छेद में "हिंदी का ढांचा" खड़े करने की बात की गई है जिसके बारे में कहना है कि यह ढांचा सांवैधानिक आवश्यकता के अनुरूप है तथा ढांचा खड़ा नहीं किया गया है बल्कि देश के नागरिकों की भाषाई आवश्कताओं का यह प्रतिबिम्ब है। यदि यह ढांचा ना रहता तो हिंदी में ना तो कोई कागज उपलब्ध हो पाता और ना ही साइन बोर्ड, नाम पट्ट आदि पर हिंदी में नाम पढ़ने को मिलता। "स्वांग" भरने की जानकारी किस आधार पर कही गई है इसका कहीं कोई पता नहीं चल सका है, अभिव्यक्ति में यह तिक्तता केवल अपूर्ण जानकारी की और इंगित करती प्रतीत हो रही है। इन कार्यालयों के कर्मियों से यदि इस बारे में पूछा जाए तो स्पष्ट जानकारी मिल सकती है अन्यथा दूर से धुंधला दिखलाई पड़ना स्वाभाविक है।

कोट – “यह ऐसी हिंदी होती है, जिसका एक वाक्य खुद अनुवाद करने वाले भी नहीं समझ पाते। इस तरह तैयार होने वाले हिंदी दस्तावेज सिर्फ तौल कर बेचने के काम आते हैं, क्योंकि जिन हिंदीभाषियों के लिए इन्हें तैयार किया गया होता है, उनका कुछ प्रयोजन इनसे नहीं सधता।”
उत्तर – चलिए मान लेता हूँ मैं उदय जी की बात कि "खुद अनुवाद करने वाले भी नहीं समझ " पाते वाक्य में कुछ सत्यता हो सकती है किन्तु क्या साहित्यकार जो लिखता है उसे वह हमेशा समझ पाता है ? राजभाषा की नई शब्दावलियाँ, नित नई अभिव्क्तियाँ आदि चुनौतीपूर्ण
हैं। शब्दों से अनजानापन किसी भी भाषा के वाक्यरचना को कठिन बना सकता है, फिर चाहे वह राजभाषा हिंदी ही क्यों ना हो। राजभाषा अभी कार्यान्वयन के दौर में है तथा धीरे-धीरे इसके प्रयोग में वृद्धि होती जा रही है। सत्य तो यह है कि किसी भी दस्तावेज को यदि केवल अंग्रेज़ी में जारी कर दिया जाए तो कर्मचारी हिंदी पाठ की मांग करते हैं क्योंकि हिंदी पाठ के द्वारा कर्मचारी अंग्रेजी पाठ को बेहतर समझ पाते हैं। कोई भी दस्तावेज केवल हिंदीभाषियों के लिए नहीं तैयार किया जाता है बल्कि जहाँ तक कार्यालय विशेष का विस्तार है वहाँ तक वह जाता है। हिंदी दस्तावेज तौल कर बेचने के काम नहीं आते बल्कि राजभाषा को और सरल, सहज और सुसंगठित करने के काम आते हैं। हाँ, काफी पुराने हो जाने के बाद हर भाषा के दस्तावेजों को नष्ट किया जाता है।

कोट – “अर्थव्यवस्था पर स्थायी बोझ बना सरकारी हिंदी का पूरा ढांचा अगर रातोंरात खत्म कर दिया जाए और इससे बचने वाले धन को पिछड़े इलाकों के प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने पर लगा दिया जाए तो इससे न सिर्फ देश के दलित-पिछड़े तबकों को बल्कि पूरे देश को काफी लाभ होगा।“
उत्तर – सरकारी हिंदी क्या है यह अस्पष्ट है। यदि यहाँ पर आशय सरकारी कार्यालयों में कामकाज की भाषा से है तो यदि देखा जाए तो प्रत्येक देश में बोलचाल की भाषा और कामकाजी भाषा में फर्क होता है फिर उसे सरकारी भाषा कहने का क्या औचित्य ? हिंदी का पूरा ढांचा रातोरात खत्म करने का प्रयास काल्पनिक मात्र है तथा विवेक और सच्चाई को परे ऱख कर लिखा गया वाक्य है। ज्ञातव्य है कि हमारा देश प्रगतिशील देश है तथा प्राइमरी स्तर पर भी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है जिसके लिए धन कभी बाधा नहीं रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी जानकारी ना होने पर प्राय: इस प्रकार के वाक्य लिखे जाते हैं।

श्री उदय प्रकाश, हिंदी साहित्यकार के लेख के उक्त अंश लगभग संपूर्ण लेख को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस लेख के बारे में इससे अधिक मैं कुछ और नहीं कहना चाहता हूँ।

धीरेन्द्र सिंह.

बुधवार, 13 मई 2009

हिंदी और अंग्रेज़ी तथा हिंदीभाषी

हिंदी भाषा का उपयोग करनेवाले तथा हिंदी के शुभचिंतक सामान्यतया हिंदीभाषी माने जाते हैं। हिंदीभाषियों में हिंदी भाषा विषयक प्रमुखतया दो वर्ग है जिसमें एक वर्ग (इसे आगे प्रथम वर्ग के नाम से जाना जाएगा) हिंदी के स्वाभाविक विकास के संग उसकी विशिष्टता को बनाए रखता है जबकि दूसरा वर्ग (इसे आगे द्वितीय वर्ग के नाम से जाना जाएगा) निर्बंध ढंग से अंग्रेज़ी शब्दों को सम्मिलित करने में प्रयत्नशील हैं। प्रथम वर्ग हिंदी भाषा में बैंक, चेक जैसे अंग्रेज़ी के जुबां पर चढ़ गए शब्दों का प्रयोग करता है तथा क्लियरिंग जैसे शब्दों को भी स्वीकार कर हिंदी भाषा को निखारने का प्रयास करता है। इस वर्ग की अंग्रेज़ी भाषा से शब्दों की स्वीकारोक्ति नियंत्रित तथा मर्यादित है तथा यह वर्ग अंग्रेज़ी के बजाय अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द स्वीकारने का हिमायती है जैसे पावती, विल्लंगम आदि शब्द। यह वर्ग हिंदी भाषा का विकास चाहता है किंतु उससे भी अधिक हिंदी के मूल स्वरूप को बनाए ऱखने का पक्षधर है।

द्वितीय वर्ग स्वंय को अत्याधुनिक विचारों का मानता है तथा बोलचाल के वाक्य में अक्सर आधे शब्द अंग्रेज़ी का प्रयोग करता है। इस वर्ग की मूल धारणा यह है कि अंग्रेज़ी भाषा को अपनाए बिना विकास कर पाना संभव नहीं है तथा केवल हिंदी के दम पर प्रगति की बात कोरी कल्पना है। भूमंडलीकरण के दौर में प्रत्येक वस्तु को विश्व मानक का बनाने की होड़ विकास की गति है अथवा एक अंधी दौड़ ? यह प्रश्न अब लोगों को प्रश्न नहीं लगता बल्कि मानसिक दिवालियेपन का प्रतीक नज़र आता है। इस सोच के परिणामस्वरूप यह वर्ग हिंदी भाषा सुविधा की भाषा बनाते जा रहा है जब जी में आए हिंदी तथा जब मूड करे अंग्रेज़ी। भाषा के नियम, व्याकरण, उसकी पाकृतिक विशेषताएं, स्वाभाविक लोच आदि इस वर्ग के लिए विशेष महत्व नहीं रखते हैं बल्कि सम्प्रेषणीयता सर्वोपरि है। यदि हिंदी की बात आती है तो यह वर्ग हिंदी के सरलीकरण पर ज़ोर देता है तथा इस वर्ग की यह भी कोशिश रहती है कि अंग्रेज़ी शब्द को यथासंभव हू-ब-हू उसी तरह देवनागरी लिपि में लिखा जाए। यह वर्ग आर्थिक आधार पर नहीं पहचाना जा सकता बल्कि यह हर भारतीय समाज में आसानीपूर्वक पाया जाता है।

हिंदी की उस तथाकथित शुद्धता का तो मैं भी हिमायती नहीं हूँ जिसमें अंग्रेज़ी के शब्दों की नाकाबंदी कर दी जाए तथा रेल्वे स्टेशन को अंग्रेज़ी का शब्द मान उसके स्थान पर लौहपथगामिनी विराम स्थल जैसे शब्दों के प्रयोग की वकालत की जाए। यह भी हिंदी भाषा के लिए उचित नहीं होगा कि मध्यमार्ग अपनाते हुए जो भी अंग्रेज़ी का शब्द आए उसे स्वीकारा जाए। अंग्रेज़ी के ऐसे शब्द जो सामान्य जनता की ज़ुबान पर रच-बस गए हों उनको खुले दिल से अपनाया जाए उदाहरण के तौर पर प्रौद्योगिकी के शब्द। स्क्रीन, कर्सर, पेन ड्राइव, सी.डी. आदि शब्दों का हिंदी में विकल्प तलाशने के बजाए उसे जस का तस स्वीकार करना उचित है। यदि हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों को खींचकर लाया जाता है तब हिंदी की मूल प्रकृति के साथ जबरन छेड़छाड़ की जाती है जैसे “ कल मॉर्निंग की ट्रेन है और 6 आवर्स की ज़र्नी है। पहुँचकर मैं कॉल करूँगा, सीयू।“ इस प्रकार की वाक्य रचनाओं की बाढ़ सी आ गयी है तथा समाज में ऐसी भाषा को बौद्धिक होने का प्रतीक माने जाने लगा है। द्वितीय वर्ग हिंदी भाषा का कुछ ऐसा ही ताना-बाना बुन रहा है।

हिंदी प्रेमियों को अब और ज्यादा सचेत होकर इस दिशा में अपने-अपने स्तर से कार्य करना चाहिए। हिंदी भाषा के द्वितीय वर्ग के प्रयासों को समर्थन न देकर हिंदी की मूल प्रकृति की विशेषताओं को सँवारते-निखारते रहना चाहिए। सरकारी, गैर-सरकारी स्तर पर हिंदी के विकास के लिए प्रयास किए जा रहे हैं जिसका अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहा है। यदि हिंदी प्रेमी हिंदी भाषा के प्रथम वर्ग के हिमायती बन जाएं तो विश्व की उन्नत भाषाओं को हिंदी सहजतापूर्वक चुनौती दे सकती है और स्वंय को उन्नत भाषाओं के शीर्ष पर बखूबी स्थापित कर सकती है। हिंदी साहित्य के अतिरिक्त कार्यालयों के कामकाज में, उच्च शिक्षा में, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में, प्रौद्योगिकी आदि में हिंदी को अपनी पहचान के लिए अथक प्रयास की आवश्यकता है और हिंदी प्रेमी इस कार्य के प्रमुख दायित्व निर्वाहक हैं इसलिए देर किस बात की ? आपकी प्रतिभा की हिंदी मुँहताज है। एक नई योजना, एक नए स्वप्न, एक लक्ष्य लिए और गतिशील हो जाईए, आखिररकार हिंदी भाषा के कारवॉ का नेतृत्व की जिम्मादारी भी तो आपकी ही है। इस प्रकार प्रतिभा नमन सुखकारी लगता है, हमेशा।

धीरेन्द्र सिंह.

मंगलवार, 12 मई 2009

चैनलों का हिन्दी चलन

हिंदी, राष्ट्र के माथे की बिंदी, यह वाक्य अनजाना नहीं है और न ही अस्वाभाविक। वैश्वीकरण की धुन में विश्व की सभी भाषाओं के रूपों में परिवर्तन हो रहा है तो भला हिंदी क्यों पीछे रहे। इसके भी रूप-रंग में कई परिवर्तन हो रहा हैं पर जितने करीब और स्पष्टता से भारतीय चैनलों पर हिंदी के विविध रंग दिखलाई पड़ते हैं, उतने किसी दूसरी विधा में नहीं। भारतीय जनमानस को सहजता से छू लेनेवाला और गहराई से प्रभावित करने की क्षमता रखनेवाला चैनल रूपी जीव अपनी वर्चस्वता का झंडा नित-प्रतिदिन सतत् उँचाई की और लिए जा रहा । इस उँचाई के संग-संग हिन्दी भी उँची होती जा रही है। ना...ना...उँचाई का अर्थ कृपया प्रगति से मत लीजिएगा, यहाँ तो उँचाई का तात्पर्य हिन्दी की सहज, स्वाभाविक और मौलिक रूप से दूर जाने की और इंगित कर रही है। प्राय: हिन्दी के प्रचलित शब्दों की जगह अंग्रेज़ी शब्दो का प्रयोग करनेवाले चैनलों के सूत्रधार (एंकर) आधुनिकीकरण की छाया में और हिन्दी के बजाए अंग्रेज़ी शब्दों को अधिक लोकप्रिय मानते हुए प्रचलित हिन्दी शब्दों को छोड़ते जा रहे हैं। दर्शक यह देख हतप्रभ रह जाता है हिन्दी के अच्छे-खासे शब्द यॉ किस तरह ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनाए जा रहे हैं।

इन चैनलों ने अपनी दर्शक संख्या बढ़ाने के लिए ब्रेकिंग न्यूज़ नाम से धड़ाधड़ वाक्य प्रदर्शन कर रहे हैं। इस तेज़ गति में प्राय: हिन्दी पर से नियंत्रण छूट जाता है तथा अशुद्ध शब्द बार-बार प्रदर्शित होते रहते हैं। इस प्रकार के प्रदर्शन से जिनकी हिन्दी अच्छी है वह लोग इस अशुद्धि को अनदेखा कर देते हैं किन्तु अधिकांश दर्शक उस शब्द को सही मानकर उसका प्रयोग करने लगते हैं। किसी-किसी चैनल में तो अंग्रेज़ी से किए गए अनुवाद में भी अनगढ़ और अशुद्ध शब्द होते हैं। दर्शक इस प्रकार की भाषागत उलझनों में अनजाने में उलझे जा रहे हैं।

इन चैनलों के समाचार वाचकों, सूत्रधारों, अनुवादकों, सम्पादकों आदि के अतिरिक्त दर्शकों का भी दायित्व है कि हिन्दी के बिगड़ते रूप की तरफ ध्यान दें और अपेक्षित पहल करें। हिंग्लिश का प्रयोग क्या हमारे देश की वर्तमान आवश्यकता है ? चैनलों का व्यावसायीकरण की अंधड़ बीच हिन्दी की मौलिकता पर एक कृत्रिम पर्त को जमाना क्या अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण की वर्तमान आवश्यकता है ? हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों की दुहाई देते हुए अंग्रेजी के शब्दों को उन्मुक्तता से अपनाते जाना क्या हिन्दी भाषा के क्षरण का एक आरम्भिक लक्षण नहीं है ? इस दिशा में जागरूक दर्शक अपनी पहल से आवश्यक परिवर्तन ला सकते हैं। चैनलों ने हिन्दी के साथ जिस तरह से अबाध गति से खेलना आरम्भ किया है वह हिन्दी के लिए अहितकर प्रतीत हो रहा है।
धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

ओ मेरे मितवा

इन्टरनेट जगत में राजभाषा विषय पर गिने-चुने लोग ही दिखलाई पड़ते हैं जिनके स्वर में हमेशा एक पुकार सुनाई पड़ती है जैसे विरह वेदना में मन पुकार उठे “आ जा तुझको पुकारे मेरे गीत रे ओ मेरे मितवा”। यह पुकार किसी व्यक्तिगत हित के लिए नहीं है बल्कि यह आवाज़ एक कारवॉ बनाने की है जिससे राजभाषा को और गुंजायमान किया जा सके। यहॉ प्रश्न उठता है कि यह पुकार क्यों ? क्या पुकारनेवाले राजभाषा जगत के नहीं हैं? यदि यह लोग राजभाषा जगत के हैं तो क्यों नहीं रू-ब-रू मिलकर अपनी समस्याओं को सुलझाते हैं आखिरकार राजभाषा की अनेकों समितियॉ कार्यरत हैं, अनेकों सशक्त मंच हैं फिर यह नेट पुकार क्यों? इस प्रश्न का उत्तर कोई भी राजभाषा अधिकारी नहीं देना चाहेगा क्योंकि यह एक सामान्य प्रश्न नहीं है बल्कि राजभाषा का एक यक्ष प्रश्न है। राजभाषा की नेट पुकार करनेवाले राजभाषा के ख्वाबों के मसीहा हैं जिसे पूरा करने के लिए उन्हें सक्षम प्रतिभाओं की आवश्यकता है। ज्ञातव्य है कि प्रतिभा को तलाशना पड़ता है तथा इस खोज़ के लिए नेट दुनिया से बेहतर जगह और नहीं है।

राजभाषा अधिकारियों ने राजभाषा को राजभाषा नीतियों के अंतर्गत एक तालाब मानिंद मर्यादित बना रखा है। राजभाषा कार्यान्वयन एक दशक से कार्यान्वयन के चौराहे पर खड़ी है तथा विभिन्न दिशाओं में ताक-झांक रही है पर किसी एक दिशा में कदम बढ़ाने की कोशिश नहीं कर रही है। यह उलझन अनेकों चुनौतियों से परिपूर्ण है। कहीं पर कर्मचारियों का अंग्रेज़ी में कार्य करने की आदत है, कहीं प्रौद्योगिकी की चुनौतियॉ हैं, कहीं राजभाषा पुरस्कार की अपार चाहत की बेचैनी है, कहीं काल्पनिक प्रशासनिक अड़चनों की दीवार है और इस प्रकार राजभाषा कार्यान्वयन की समस्याओं के अनेकों मदें हैं जिनके समाधान का प्रयास नेट पर आरम्भ हो चुका है। यहॉ प्रश्न उठता है कि इन समस्याओं के समाधान के लिए राजभाषा कार्यान्वयन समिति है, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति है तथा इससे भी सक्षम समितियॉ हैं फिर नेट पुकार क्यों? नेट पुकार इसलिए क्योंकि इन सब मंचों तक प्रत्येक राजभाषा अधिकारी नहीं पहुँच सकते तथा कभी-कभी तो इन समितियों में प्रत्येक उपस्थितों को अपनी बात रखने का अवसर ही नहीं मिल पाता है अतएव इन समितियों की अपनी सीमाएं और मर्यादाएं हैं जिसके अंतर्गत निश्चित एवं निर्धारित संख्या रहती है। नेट जैसी व्यापकता इन समितियों में नहीं मिलती इसलिए नेट पुकार समय की मॉग बन गई है।

राजभाषा अधिकारियों के अपने-अपने राजभाषाई टापू हैं जिसके अंतर्गत एकसमान मानसिकता वाले राजभाषा अधिकारी राजभाषा का अपना आसमान निर्मित करते रहते हैं। एक राजभाषाई टापू दूसरे राजभाषाई टापू की तीखी आलोचना करने से बाज नहीं आता है जिसके परिणामस्वरूप राजभाषा का कारवॉ गठित नहीं हो पाता है। यह हिंदी की एक त्रासदी है। राजभाषा कार्यान्वयन में जब तक एकलक्ष्यी, एकमार्गी, एकजुट होकर कार्य नहीं किया जाएगा तब तक सफलता नहीं मिल सकती है। कटु य़थार्थ यह है कि विभिन्न सार्थक-निरर्थक कारणों से राजभाषा अधिकारियों में एकजुटता नहीं हो पा रही जिसका प्रतिकूल परिणाम राजभाषा कार्यान्वयन पर पड़ रहा है। एकजुट ना हो पाने का प्रमुख कारण हिंदी की बौद्धिक वर्चस्वता को जतलाना है। एक राजभाषा अधिकारी स्वंय को दूसरे से श्रेष्ठ मानता है। इस सोच के संघ्रष में राजभाषा फंसी है तथा कुछ कर्मठ राजभाषा अधिकारी भी फंसे हैं जैसे अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंसे थे।

कभी भी किसी की आलोचना अथवा प्रतिकूल टिप्पणियों से राजभाषा कार्यान्वयन नहीं किया जा सकता है बल्कि इससे कार्यान्वयन की गति को क्षत्ति अवश्य पहुँचाया जा सकता है। अपने-अपने कार्यालयों की परिधि से बाहर निकलकर यदि कोई राजभाषा अधिकारी नेट पर एक कारवॉ बनाने का प्रयास कर रहा है तो यह एक उल्लेखनीय पहल है। इस प्रकार हिंदी की अन्य प्रतिभाओं को राजभाषा कार्यान्वयन से किसी ना किसी रूप से जोड़ा जा सकता है। यह प्रयास राजभाषा के प्रचार-प्रसार की गति को तेज़ करने के लिए अत्यधिक आवश्यक है। कामना यही है कि अनेकों मितवाओं तक यह आवाज़ जाए तथा उनके विचार राजभाषा कार्यान्वयन को और विशाल तट प्रदान करता रहे।

धीरेन्द्र सिंह.

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

प्रौद्योगिकी से प्रीत

व्यक्ति की चाहत हो या ना हो प्रौद्योगिकी से प्रीत करनी ही पड़ती है। आज प्रौद्योगिकी ललकार रही है कि मुझसे बच कर दिखाओ तो जानें। चमकती स्क्रीन से आँखें प्रभावित हो सकती है, चश्मा आँखों से या आँखें चश्मे से बेपनाह मुहब्बत शुरू कर सकती हैं, अंगुलियों में दर्द उठ सकता है या फिर स्पांडलायसिस हो सकता है। इतनी सारी चुनौतियों सह भय के बावजूद भी मन है कि मानता नहीं। कम्प्यूटर, एक मित्र है, हमराज है, खुशियों का अलहदा साज है अजी अल्हड़ता के झूले पर पगलाया सा मधुमास है। कल तक इसे समय की बर्बादी के अंदाज़ से देखनेवाले, सामाजिक गतिविधियों से दूर ले जानेवाली मुसीबत के रूप में पहचाननेवाले आज ख़ुद कम्प्यूटर से नैन-मटक्का करते पाए जाते हैं। कितना मज़ा आता है जब गुगल महाराज से कहते हैं कि हमें फलां जानकारी दो या फलां चीज़ दिखलाओ और पलक झपकते ही वह हाज़िर। अलादीनी चिराग के टक्कर का मामला है यह तो।

जब तक कम्प्यूटर से व्यक्ति अपरिचित है तब तक उसके स्वर इसके बाबत या तो निष्पक्ष या निष्क्रिय होते हैं या फिर एनाकोंडा की तरह विरोध में फुंफकारते रहते है। यद्यपि इस वर्ग के व्यक्ति अब धीरे-धीरे लुप्तप्राय प्राणियों में आने लगे हैं। अब तो कम्प्यूटर उपयोगिता की लहलहाती फसलों का मौसम है जिसमें सम्प्रेषण के नित नए प्रवाह चलते हैं तथा सोच और चिंतन को पुरवैया का ख़ुमार दर ख़ुमार मिलते रहता है। अब तो यह तय करना मुश्किल है कि सोच की गति तेज़ है अथवा सम्प्रेषण की गति और इन दोनों की संगति में मति के भ्रमित हो जाने का अंदेशा बना रहता है। जिसका यदा-कदा नमूना देखने को मिलते रहता है। ख़ैर यह सब छोटी-छोटी कलाकारियाँ चलती ही रहेंगीं क्योंकि भावनाओं और विचारों पर भला कभी नियंत्रण लग सका है। अभिव्यक्ति की इस आजादी पर यदि अपनी मनमानी न किया तो फिर क्या किया ?

कम्प्यूटर पर हिंदी में कुछ टाइप कर लेना अथवा कुछ इ-मेल कर द्नेना ही फिलहाल हिंदी में कम्प्यूटरी महारत है परन्तु दर्द यह है कि यह भी ठीक से नहीं हो पाता है। आजकल के युवा तो कम्प्यूटर से यूँ चिपके रहते हैं जैसे दीवाल से छिपकली मानों छिपकली की तरह एक उचित अवसर की तलाश में हों और अवसर मिलते ही लपक लें। युवाओं के लिए कम्प्यूटर तलाश की भूमिका सर्वाधिक निभाता है। यहां पर चिन्ताजनक बात यह है कि युवाओं द्वारा कम्प्यूटर पर अंग्रेज़ी का ही प्रयोग अधिकांश किया जा रहा है तथा हिंदी से उनका कोई खास वास्ता नहीं है। आवश्यक है कि केवल देवनागरी लिपि में प्रविष्टियॉ भेजने के विभिन्न फोरम बनाए जाएं तथा उन्हें लोकप्रिय बनाया जाए। युवाओं की भी रूचि केवल संदेशों के आदान-प्रदान की है। उन्हें तो दिलों की सदाओं में ही विशेष रूचि है, कम्प्यूटर की शेष विधाएं तो नौकरी के लिए सीखना आवश्यक है।

कार्यालयों में कम्प्यूटर उपयोगिता की अनेकों स्थितियॉ हैं। एक वक्त में यह कहा जाता था कि कम्प्यूटर के साथ मित्रता कार्यालय कर्मी नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनकी उम्र 45 के आसपास है किन्तु कार्यालय कर्मियों ने जिस हौसले से कम्प्यूटर से मित्रता की उससे लोग दांतो तले उंगलियॉ दबाने लगे। अपनी इस कामयाबी पर खुश होकर कर्मी गुनगुनाने लगे – ओ मेरी ]ज़ोहराजबीं...। सफलताएं इस तरह गुनगुनाने का स्वाभाविक अवसर देती हैं। यहॉ भी वही परेशानी है कि काम अंग्रेज़ी में होता है अथवा निर्धारित कमांड से किन्तु हिंदी अभी भी माथे की बिंदी जैसे शोभित नाम लेकर अपनी सूक्ष्म इयत्ता पर भविष्य में पसरने का मंसूबा बनाए हुए है। कार्यालयों में अब भी कई कर्मी मिल जाएंगे जिन्हें फ्लापी ड्राइव के बारे में कुछ भी नहीं मालूम। ऐसी स्थिति में प्रौद्योगिकी से हिंदी को जोड़ने की बात एक कठिन चुनौती लग रही है। कम्प्यूटर की देहरी पर हिंदी सजी संवरी खड़ी है और प्रतीक्षा कर रही है उंगलियों को देवनागरी की बोर्ड पर दौड़ते हुए जिससे कम्प्यूटर की दुनिया में वह अपना आसमान, एक नायाब ज़हान निर्मित कर सके।

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी.

स्थूल रूप से आकलन किया जाए तो वर्तमान में हिंदी के कुल तीन प्रमुख रूप हैं जो कारोबारी हिन्दी, साहित्यिक हिंदी और आम बोलचाल की हिन्दी है। हिन्दी इतिहास के पन्नों को पलटने पर यह स्पष्ट होता है कि विगत में हिंदी कामकाज की भाषा नहीं बन सकी थी किन्तु हिंदी का साहित्यिक रूप अपनी बुलन्दी पर हमेशा रहा है। 90 के दशक से साहित्यिक हिंदी पर कारोबारी हिंदी का प्रभाव पड़ना आरम्भ हुआ जिसे सहजतापूर्वक देखा जा सकता है। यद्यपि कारोबारी हिंदी का स्वर्णिम काल 80 के दशक से ही आरम्भ हो चुका था। कारोबारी हिंदी की इस तूफानी विकास यात्रा में आधुनिक विपणन युग का प्रमुख योगदान है। अतएव अब यह आवश्यक हो गया है कि हिंदी के विकास में सामानान्तर चल रही कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी का अन्तर गंगा-यमुना की संगम की तरह रखा जाए।

इस मुद्दे को उठाने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वर्तमान में हिंदी पर चौतरफा भाषाई घुसपैठ जारी है जिसका स्वरूप विशेषकर महानगरों की आम बोलचाल की हिंदी में देखा जा सकता है। इस घुसपैठ को रोकना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है किंतु घुसपैठ के प्रभाव को कम किया जा सकता है। हिंदी भाषा का यह जॉच बिन्दु हिंदी लेखन से सीधे जुड़ा है। हिंदी में लिखनेवालों को अपनी-अपनी विधाओं के अस्तित्व को बनाए रखना है उसे बचाए रखना है। इसके लिए यह आवश्यक है कि यह स्पष्ट किया जाए कि कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी के अन्तर्गत क्या-क्या आता है। कारोबारी हिंदी के अंतर्गत वर्तमान में अंग्रेज़ी की अनुदित सामग्रियॉ अधिक हैं जो केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में उपलब्ध हैं, मीडिया द्वारा कारोबारी हिंदी में प्रयुक्त शब्दावलियॉ हैं, वित्तीय अख़बारों और पत्रिकाओं की भाषा आदि हैं। जबकि साहित्यिक हिंदी में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं के अतिरिक्त मीडिया, रंगमंच, संस्कृति आदि हैं।

कारोबारी हिंदी के विकास के लिए काफी अधिक अनुवाद कार्य हुआ है जबकि साहित्यिक हिंदी में भी अनुवाद अनवरत जारी है लेकिन दोनों के अनुवाद में व्यापक अंतर है। साहित्यिक हिंदी में अनुवाद करने के लिए शब्दों के लिए न तो अटकना पड़ता है और न भटकना पड़ता है। साहित्यिक हिंदी इतर साहित्य को बखूबी अभिव्यक्त कर देती है क्योंकि साहित्यिक हिंदी की परम्परा कारोबारी हिंदी से अत्यधिक पुरानी है और इसमें शब्दों के विपुल भंडार हैं। शब्दों का यह भंडार कारोबारी हिंदी के लिए पूरी तरह से उपयोगी नहीं है। कारोबारी हिंदी को कामकाज की प्रणाली के अनुसार न केवल हिंदी में नए शब्द तलाशने पड़ते हैं बल्कि वाक्य रचना भी साहित्यिक हिंदी से भिन्न रचनी पड़ती है। इस तलाश में एक तरफ नए-नए शब्दों का प्रादुर्भाव होता है तो दूसरी और हिंदी वाक्य रचना की नई शैली भी विकसित होती है। कारोबारी हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं से शब्द लिए जाते हैं तथा नए शब्द गढ़े भी जाते हैं जबकि साहित्यिक हिंदी में इस तरह के परिवर्तन बहुत कम होते हैं और यदि होते भी हैं तो साहित्यिक हिंदी उसे बखूबी खुद में समा लेती है जिसका सामान्यतया अनुभव नहीं हो पाता है।

विपणन के इस युग में प्रत्येक वस्तु का मूल्यांकन किया जा रहा है तथा उसकी कीमतें निर्धारित की जा रही हैं। संपूर्ण विश्व क्रेता और विक्रेता बना हुआ है, अभिव्यक्तियॉ भावनाओं से दूर होती जा रही हैं और व्यवहारिकता को समाज पनाह देने को विवश है। कारोबार आम जीवन शैली को प्रभावित करते जा रहा है और पभोक्तावाद की लहर से कोई भी अछूता नहीं है। जिंदगी को बाज़ारवाद जितनी गहराई से छू रहा है उतनी ही तेज़ी से अभिव्यक्तियॉ भी बदल रही हैं। प्रौद्योगिकी की भाषा अभी हिंदी पर आक्रमण नहीं की है किन्तु जैसे-जैसे हिंदी में प्रौद्योगिकी का प्रयोग बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे हिंदी के समक्ष एक और नई चुनौती उभरती जाएगी। हिंदी भाषा की परंपरागत शैली को बनाए रखने के लिए हिंदी लेखकों को विशेष ध्यान देना चाहिए। अनेकों अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं घुसपैठ की तैयारियॉ कर रही हैं। अगर हमें अपनी वस्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेचनी है तो अपनी भाषा को भी वहॉ ले जाना होगा। अगर भाषा जाएगी तो संस्कृति जाएगी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यदि हमारी संस्कृति अपना ली गई तो वहॉ के बाज़ार में हमारा प्रवेश आसानीपूर्वक हो सकेगा। इस प्रकार की कार्यनीतियॉ निकट भविष्य में भाषागत चुनौतियॉ खड़ी करेंगी जिसमें प्रौद्योगिकी की उल्लेखनीय भूमिका होगी।

धीरेन्द्र सिंह.

रविवार, 19 अप्रैल 2009

अंग्रेज़ी और शन्नो

दिनांक 18 अप्रैल, 2009 को समाचार की सुर्खियों में एक 11 वर्षीय बालिका शन्नो की मृत्यु की ख़बर के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा की भी चर्चा थी। समाचार में उल्लेख था कि अंग्रेज़ी का अल्फाबेट याद न करने पर शिक्षिका मंजू ने शन्नो को दंडित करते हुए उसके कंधे पर दो इंटें लटकाकर दो घंटे तक खड़ा किया था जिसके फलस्वरूप शन्नो की मृत्यु हो गयी। यह एक बेहद दुखद ख़बर थी। विभिन्न समाचार विश्लेषकों ने शन्नो की मृत्यु के लिए विद्यालय और शिक्षिका को ज़िम्मेदार ठहराने का प्रयास किया। दिनांक 19 अप्रैल 2009 को इस विषयक जॉच की खबर प्रकाशित हुई और इसके बाद इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। मैं बेसब्री से किसी और पहल, किसी और सोच की प्रतीक्षा करता रहा किंतु शन्नो का मामला विद्यालय के सख्त रवैया के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा।

शन्नो मुझे एक बालिका नहीं लग रही है और न ही शन्नो की मृत्यु केवल एक दुर्घटनाजनित मृत्यु ही लग रही है और न ही विद्यालय या शिक्षिका इस दुर्घटना के लिए केवल जिम्मेदार नज़र आ रहे हैं। शन्नो भारत की उन असंख्य बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों, पुरूष-महिलाओं की प्रतिनिधि है जो अपनी मातृभाषा और हिंदी को छोड़कर अंग्रेज़ी भाषा को अलादीन का चिराग मानकर अपनाने का अथक प्रयास करते रहते हैं। अपनी मातृभाषा या हिंदी में सोच, चिंतन करते हुए उसे अंग्रेज़ी में अनुदित करने का प्रयास करते रहते हैं और सटीक शब्दावली याद न आने पर ख़ुद पर खीझते हुए स्वंय को ज़ाहिल, गंवार कहने में भी नहीं हिचकिचाते। शिशु जब से तुतलाना आरम्भ करता है उसी समय से अंग्रेज़ी का अल्फाबेट जन्मघुट्टी की तरह पिलाने का प्रचलन हमारे देश की आम बात है। केवल अंग्रेज़ी बोलने भर से शिक्षित होने का प्रमाण माना जाना हमारे देश की परम्परा बन चुकी है। शन्नो इसी सोच की बलि चढ़ गई। “जैक एंड ज़िल, वेंट प द हिल” को यदि बच्चे परिवार, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच नहीं सुना पाते तब तक न तो वह बच्चा समझदार माना जाता है और न ही उसके अभिभावक आधुनिक ख़याल के माने जाते हैं।

ऐसी स्थिति में क्या करे विद्यालय और क्या सिखाए शिक्षक ? एक अंग्रेज़ी ही तो है जिसके लिए अभिभावक परेशान रहते हैं क्योंकि यदि अंग्रेज़ी नहीं आएगी तो इंग्लिश मिडीयम स्कूल में एडमिशन नहीं हो पाएगा और यदि बच्चा इंग्लिश मीडियम स्कूल में नहीं पढ़ता है तो फिर वह एक कमज़ोर विद्यार्थी माना जाता है। प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय का लक्ष्य अपने विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी सिखाना रहता है। यदि शन्नो के विद्यालय ने अंग्रेज़ी सिखाने के लिए सख्ती की तो उसका दायित्व केवल विद्यालय पर ही नहीं जाता है बल्कि हमारा समाज भी ज़िम्मेदार है। दंडित शन्नो को दंड से अधिक मानसिक भय भी रहा होगा। अल्फाबेट न सीख पाने का दुःख भी रहा होगा। आज न जाने कितने विद्यार्थी प्राथमिक विद्यालय में अल्फाबेट से जूझ रहे हैं और इस भाषा को सीखने के लिए मानसिक कष्टों से गुज़र रहे हैं। इस विषय पर यदि सर्वेक्षण या शोध किया जाए तो कई चौंकानेवाले तथ्यों के उजागर होने की संभावना है।

शन्नो केवल प्राथमिक विद्यालय स्तर पर ही नहीं पाई जाती है। शन्नो विद्यालयों, महाविद्यालयों, दफ्तरों तक में व्याप्त है। महाविद्यालयों में सामान्यतया यह अनुभव रहा है कि अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों की तुलना में गैर अंग्रेज़ी विद्यालियों में पढ़े विद्यार्थी कहीं बेहतर पाए जाते हैं परन्तु महाविद्यालय की इतर गतिविधियों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है। यह महाविद्यालय की विवशता है वहॉ कार्यरत मंजू शिक्षिकाओं की चुनौती है, महाविद्यालयों की छवि का प्रश्न है, साख का मामला है, विपणन की मांग है। शन्नो हर जगह परेशान हैं। मंजू हर जगह कार्यनिष्पादन के श्रेष्ठ प्रदर्शन के दबाव में है। अन्य भारतीय भाषाएं बिखरी हुई सी पड़ी हैं, ठीक उस नृत्य टोली की तरह जिसमें प्रमुख नर्तक का परिधान, स्थान, मुद्राएं समूह के अन्य नर्तकों से भिन्न और विशिष्ट होता है। अंग्रेज़ी को प्रमुख नर्तक बना दिया गया है तथा अन्य सभी भारतीय भाषाओं को उस टोली का सहायक नर्तक बनाकर प्रस्तुतियॉ की जा रही हैं और तालियॉ बजाई जा रही हैं। शन्नो को प्रमुख नर्तक की भूमिका में ढालने का प्रयास एक दुखद हादसा में बदल जाना पीड़ादायक हो जाएगा, ऐसा तो किसी ने सोचा ही नहीं था।

सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में कार्यरत राजभाषा अधिकारी या हिंदी अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन के लिए मंजू जैसी मानसिकता से ही गुज़र रहे हैं। यहॉ की शन्नो अर्थात कर्मचारी परिपक्व और उम्रदराज़ है फिर भी अंग्रेज़ी के अल्फाबेट को नहीं सीख पा रही है। यह और बात है कि यहॉ की शन्नो काफी चतुर और समझदार है इसलिए अल्फाबेट पूरी तरह याद न होने के बावजूद भी कभी तेज़ी से बोलकर या घसीटकर लिख कर अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर रही है। मंजू को सब पता है फिर भी वह कुछ नहीं कर सकती क्योंकि यह प्राथमिक विद्यालय नहीं है इसलिए खामोशी से देखे जा रही है। आख़िर काम तो चल रहा है न, बस यही तो चाहिए। आक़िर भाषा की उपयोगिता केवल काम ही तो चलाना है फिर भले ही अल्फाबेट आए या ना आए। मंजू अल्फाबेट को लेकर परेशान है और शन्नौ अल्फाबेट को लेकर परेशान है। अंग्रेज़ी चल रह है। शन्नो तुम्हारी मृत्यु इस देश के भाषिक सोच का परिणाम है। यह भाषा की बलिदानी है। प्रणाम शन्नो।

धीरेन्द्र सिंह.

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

अंग्रेज़ी की कठिनाई.

भारत देश में प्राय: यह कहा जाता है कि अंग्रेज़ी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है तथा इस भाषा के द्वारा विश्व के ज्ञान, सूचनाओं आदि की खिड़कियॉ खुलती हैं। इस सोच के विरोध में भारत देश में अनेकों बार स्वर उठते रहे हैं तथा इस कथन की सत्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे हैं किंतु ऐसे स्वरों को अनसुना किया जाता रहा है। इस प्रकार देश के जनमानस में यह प्रचारित किया जा चुका है कि और प्रचारित किया जा रहा है कि भारतीय भाषाओं की तुलना में अंग्रेज़ी भाषा प्रगति का एकमात्र रथ है जिसे अपनाने से तरक्की की गारंटी मिल जाती है। यद्यपि देश में अनेकों ज्वलंत उदाहरण हैं जिनके आधार पर यह बखूबी बतलाया जा सकता है कि प्रगति के लिए अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाएं भी हैं जिनसे तरक्की की जा रही है। अंग्रेज़ी भाषा के संग हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के द्वंद्व में राष्ट्र प्रगति करते जा रहा है फिर भी उपलब्धियों की बुलंदी तक पहुँचना बाकी है। किसी भी राष्ट्र और भाषा का प्रगति में कितना तालमेली योगदान होता है इसके विश्व में कई ज्वलंत उदाहरण हैं। लेकिन बात तो अंग्रेज़ी भाषा के कठिनाई की करनी है तो इतनी लंबी भूमिका क्यों ?

हॉ, इस लेख का प्रेरक दिनांक 16 अप्रैल, 2009 को अंग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स (मुंबई) के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक चौंकानेवाला समाचार है। समाचार के शीर्षक का यदि हिंदी अनुवाद किया जाए तो कुछ ऐसा होगा – शहर के एयरपोर्ट पर भाषा-संबंधी विलंब को गपशप ने सुलझाया। इस शीर्षक में भाषा संबंधी विलंब में एक चुम्बकीय आकर्षण था जिसके प्रभाव में मैं एक सांस में पूरा समाचार पढ़ गया। इस समाचार के पठन के बाद यह सोच उत्पन्न हुई कि भाषा का द्वंद्व ज़मीन से आसमान तक कैसे पहुँच गया ? हमारे देश की सोच में अंतर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेज़ी का दबदबा है फिर यह भाषा की आसमानी लड़ाई कैसी ? क्या सचमुच अंग्रेज़ी बौनी होती जा रही है ? क्या भूमंडलीकरण ने अन्य तथ्यों के संग-संग भाषा की सत्यता को भी प्रकट करना शुरू कर दिया है ? क्या अंग्रेज़ी भाषा के प्रति भारत की सामान्य सोच में परिवर्तन होगा ? क्या संकेत दे रहा है यह समाचार ?

दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स में यह दर्शाया गया है कि क़ज़ाकिस्तान, रूस तथा कोरिया आदि देश के पायलट को एयर ट्रैफिक कंट्रोल (एटीसी) से अंग्रेज़ी में प्राप्त अनुदेशों को समझने में असुविधा होती है। अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त अंग्रेज़ी बोलने के लहज़े से उनको काफी कठिनाई होती है। इस कठिनाई का हल निकालने के लिए यह निर्णय लिया गया कि एटीसी और इस प्रकार के विदेशी पायलटों के बीच गपशप हो जिससे पायलट अंग्रेज़ी के लहज़े को भी समझ सकें। समाचार में इसका भी उल्लेख है कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अनुसार मार्च, 2008 तक भारत में विदेशी पायलटों की संख्या 944 थी। इस क्षेत्र की चूँकि निर्धारित शब्दावली एवं सीमित वाक्य होते हैं जिससे एक अभ्यास के बाद इसे सीखा जा सकता है परन्तु सामान्य बातचीत में कठिनाई बरकरार रहेगी। भविष्य में अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अनेकों भाषाएं विश्व में अपना दबदबा बनाने का प्रयास करेंगी अतएव हिंदी को अब और व्यापक रूप में अपनाने की आवश्यकता है। अंग्रेज़ी भाषा की इस प्रकार की कठिनाई की तरह कहीं भविष्य हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए घोर संकट न पैदा कर दे।
धीरेन्द्र सिंह.

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

अंग्रेज़ी की दुहाई.

अभिव्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति के लिए भी उस राष्ट्र की भाषा का महत्व होता है। भाषा विज्ञान भी इस तथ्य को मानता है। यह तथ्य है कि किसी भी समाज के विकास में केवल भाषा का योगदान नहीं रहता है किन्तु विकास के क्रम में भाषा के महत्व को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता है। सर्वविदित है कि किसी भी राष्ट्र की सामान्यतया लिखित और मौखिक भाषा का स्वरूप एक सा नहीं रहता है। भाषाओं की तुलना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि प्रत्येक भाषा अपनी ज़मीन का सोंधापन लिए होती है। प्रत्येक भाषा अपने आधार विस्तार के संग-संग दूसरी भाषाओं की विभिन्न खूबियों को स्वंय में मिलाकर अपना विकास करते रहती है। इस प्रकार साहित्य, प्रौद्योगिकी, प्रशासकीय कामकाज आदि में सहजतापूर्वक प्रयोग में लाई जानेवाली भाषा एक विकसित भाषा के रूप में जानी जाती है। इस क्रम में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएं स्वंय को वर्षों से विकसित भाषा के रूप में प्रमाणित कर रही हैं। हमारे देश में विकसित भाषा के रूप में मानी जानेवाली अंग्रेज़ी भाषा कभी अविकसित भाषा के रूप में जानी जाती थी। वर्तमान में हमारे देश में अंग्रेज़ी भाषा के सामने हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जा रहा है जीसकी अनुभूतियों से आए दिन गुज़रना पड़ता है।

भारतीय संविधान भी हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के विकास की बात कहता है। भारत देश के सार्वजनिक जीवन में मौखिक प्रयोग के रूप में भी हिंदी की लोकप्रियता तथा उपयोगिता अपने चरम पर है। संघ की राजभाषा हिंदी का प्रशासकीय कामकाज में उपयोग अपेक्षाकृत काफी कम है। इस कार्य हेतु कोशिशें जारी हैं किंतु जितनी उर्जा, समर्पण तथा स्वप्रेरणा की आवश्यकता है उतनी उपलब्ध नहीं हो पा रही है परिणामस्वरूप हिंदी तथा भारतीय भाषाएं एक औपचारिकता के आवरण में लिपटी दिखलाई पड़ रही है। इस क्रम में राष्ट्र के हिस्से से यह आवाज़ उठती है कि अंग्रेजी को हटाया जाना चाहिए तब उसपर काफी शोर क्यों मचाया जा रहा है? क्या किसी के कह देने मात्र से कोई भाषा समाप्त हो जाती है ? या कि यह भाषा विषयक किसी भय का शोर है ? गौरतलब है कि भारत देश के संविधान में देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी संघ की राजभाषा है जिसके कार्यान्वयन के लिए काफी प्रयास किए जा रहे हैं, तो क्या इस संवैधानिक शक्ति से विभिन्न सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों आदि में राजभाषा हिंदी का प्रयोग लक्ष्य के अनुरूप किया जा रहा है ? यदि नहीं तो यह प्रमाणित करता है कि किसी भाषा के हटा देने की आवाज बुलन्द करने मात्र से कोई भाषा नहीं हटती है तो फिर मीडिया द्वारा अंग्रेज़ी की दुहाई क्यों दी जा रही है ?


ज्ञातव्य है कि भारत देश की सम्पर्क भाषा हिन्दी है तथा इसका सशक्त जनाधार है। देश के विभिन्न राज्यों में संबंधित राज्य की भाषा का बोलबाला है। इन सबके बावजूद भी अंग्रेजी का प्रयोग कम करना कठिन क्यों लग रहा है यह एक विचारणीय प्रश्न है। अंग्रेज़ी हटाओ के पीछे क्या धारणा है इसकी व्यापक समीक्षा नहीं की जा रही है। “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति खा मूल” विचार का गहराई से विश्लेषण नहीं किया जा रहा है। भाषा विचार को प्रभावित करती है या कि विचार भाषा पर अपनी वर्चस्वता बनाए रखता है, से स्पष्ट नहीं किया जा रहा है। स्वतंत्रता और परतंत्रता में भाषा की भूमिका स्पष्ट नहीं की जा रही है। भाषा का प्रयोग एक आदत का या भाषागत व्यवस्था की सहजता का परिणाम है इसे सार्वजनिक तौर पर निरूपित नहीं किया जा रहा है। राष्ट्र की एक भाषा का प्रशासकीय कार्यों में पयोग में लाया जाना राष्ट्रहित में है इसपर खुलकर बहस नहीं की जा रही है। हिंदी को पूर्णतया प्रशासकीय कार्यों में प्रयोग में लाने की बाधाओं का उल्लेख नहीं किया जा रहा है। यह भी नहीं समझाया जा रहा है कि एक भाषा को पूर्णतया सक्षम कर उसके पद पर आसीन करने के लिए एक धमाकेदार प्रयास की आवश्यकता होती है।

इस विषयक दूसरी कटु स्थिति यह है कि राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन से जुड़े अधिकांश लोग अब थके-थके से लगने लगे हैं। ऐसी स्थिति में एक प्रेरणापूर्ण ललकार उनमें नई उर्जा तथा जागृति का संचार कर सकती है। भूमंडलीकरण के दौर में जिस देश की माटी की भाषा को लिखित और मौखिक संप्रेषण में सर्वोच्च स्थान नहीं दिया जाएगा वह देश पिछड़ों की श्रेणी में माना जाएगा। आज हिंदी प्रौद्योगिकी में भी अपनी श्रेष्ठ क्षमता का परिचय दे चुकी है। विज्ञान, तकनीकी आदि विषयों को बखूबी अभिव्यक्त करने की शब्दावलियों सो सजी-संवरी हिंदी और कब तक अपने पद पर आसीन होने के लिए प्रतीक्षारत रहेगी ?

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 30 मार्च 2009

राजभाषा अनुशासन

अनुशासन शब्द एक निर्धारित व्यवस्था का द्योतक है। देश, काल, समय और परिस्थिति के अनुरूप अनुशासन में यथावश्यक परिवर्तन होते रहता है। अनुशासन के लिए हमेशा एक सजग, सतर्क तथा कठोर पर्यवेक्षक की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि स्वनुशासित होना बेहतर होता है। स्वनुशासन प्राय: जागरूक लोगों में पाया जाता है। राजभाषा भी जागरूक है इसलिए अनुशासित है। नियम, अधिनियम, राष्ट्रपति के आदेश, वार्षिक कार्यक्रम आदि राजभाषा को अनुशासन की पटरी पर सदा गतिमान रखते हैं। तो क्या राजभाषा लोग है? नहीं, ऐसे कैसे सोचा जा सकता है? इसमें न तो भावनाओं का स्पंदन है और न ही विचारों का प्रवाह है, यह तो मात्र नीति दिशानिर्देशक है। लोग तो राजभाषा अधिकारी हैं जो राजभाषा के बल पर एक प्रभावशाली पदनाम के साथ राजभाषा कार्यान्वयन कर रहे हैं। जब कभी भी राजभाषा के लिए अनुशासन शब्द का प्रयोग किया जाएगा तो राजभाषा अधिकारी स्वत: ही जुड़ जाएगा। अतएव राजभाषा अधिकारियों के अनुशासन पर चर्चा की जा सकती है। प्रश्न यह उभरता है कि क्या राजभाषा अधिकारियों के अनुशासन पर चर्चा प्रासंगिक एवं आवश्यक है? यदि राजभाषा कार्यान्वयन प्रासंगिक है तो राजभाषा अधिकारियों पर चर्चा भी समीचीन है।

कैसे की जाए राजभाषा अनुशासन की चर्चा? राजभाषा अधिकारी तो एक अनछुआ सा विषय है. यदा-कदा कभी चर्चा भी होती भी है तो राजभाषा अधिकारी की तीखी आलोचनाओं के घेरे में उलझकर चर्चाएं ठहर जाती हैं। वर्तमान परिवेश में जितना बेहतर प्रदर्शन राजभाषा अधिकारी कर पाएंगे उतना ही प्रभावशाली राजभाषा कार्यान्वयन होगा। राजभाषा कार्यान्वयन संबंधित राजभाषा अधिकारी के कार्यनिष्पादनों का प्रतिबिम्ब है। राजभाषा अधिकारियों को स्वनुशासित होने के लिए निम्नलिखित मानदंड निर्धारित किए जा सकते हैं –

1. आत्मविश्वास
2. भाषागत संचेतना
3. राजभाषा नीति का ज्ञान
4. सम्प्रेषण कौशल
5. अनुवाद कौशल
6. बेहतर जनसंपर्क
7. रचनात्मक रूझान
8. कार्यान्वयन कुशलता
9. प्रतिबद्धता
10. प्रदर्शन कौशल

उक्त के आधार पर अनुशासन की रेखा खींची जा सकती है। ज्ञातव्य है कि सशक्त आधार तथा कुशलताओं के बल पर बेहतर से बेहतर कार्यनिष्पादन किया जा सकता है। राजभाषा अधिकारी अपनी-अपनी क्षमताओं के संग राजभाषाई उमंग का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। आवधिक तौर पर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की समीक्षा भी होती रहती है। इस प्रकार की समीक्षाएं राजभाषा कार्यान्वयन में सतत् सुधार के अतिरिक्त अनुशासन बनाए रखने में भी सहायक है। इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि राजभाषा कार्यान्वयन संबंधित कार्यालय के कामकाज का एक हिस्सा है अतएव इसे कार्यालय की धारा के संग चलना पड़ता है अन्यथा कार्यान्वयन सुचारू रूप से नहीं हो सकता है। चूँकि कार्यान्वयन कार्यालय के कामकाज से जुड़ा है इसलिए कार्यालय के अनुशासन से भी बंधा है। इसके बावजूद भी यदि राजभाषा अधिकारी उक्त मानदंडों पर खरा नहीं उतरता है तो वह अनुशासित नहीं है अर्थात प्रभावशाली राजभाषा कार्यान्वयन के लिए सक्षम नहीं है।

धीरेन्द्र सिंह.

रविवार, 29 मार्च 2009

राजभाषा तथा हिंदी साहित्यकार.

एक युग वह भी था जब हिंदी कार्यालयों की देहरी तक भी अपना प्रभाव निर्मित नहीं कर सकी थी। एक सामान्य धारणा थी कि हिंदी बातचीत और गानों-बजानों की भाषा है। यह मान्यता भी निर्मित हो चुकी थी कि हिंदी में कारोबारी अभिव्यक्तियाँ संभव नहीं है । भारतीय संविधान की व्यवस्था के अन्तर्गत राजभाषा नीति के कार्यान्वयन के लिए सरकारी कोशिशें शुरू हुई तथा हिन्दी की एक नई विधा - राजभाषा का प्रादुर्भाव हुआ। अधिकांशत: हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी अथवा हिंदी माध्यम से शिक्षा प्राप्त हिंदीसेवी राजभाषा अधिकारी के पद पर राजभाषा कार्यान्वयन के दायित्वों का निर्वाह करना आरम्भ किया। कार्यालयीन परिवेश की विभिन्न अभिव्यक्तियों के लिए हिंदी में शब्द उपलब्ध नहीं थे जिसका कारण स्पष्ट था कि पहले हिंदी कभी भी सरकारी कामकाज की भाषा नहीं थी। राजभाषा के नए-नए शब्दों पर काफी टिप्पणियाँ आनी शुरू हुई और राजभाषा पर यह आरोप लगाया गया कि यह दुरूह शब्दावलियों से भरी हुई है। ऱाजभाषा को विभिन्न विशेषणों से संबोधित करते हुए राजभाषा अधिकारियों पर अंगुलियां उठने लगी। भाषागत यह एक विकट स्थिति थी।

कार्यालय के विभिन्न विषयों के लिए निर्धारित अलग-अलग शब्दावलियों के बीच में आम बोलचाल की हिन्दी शब्दावली ठगी सी खड़ी होकर अपरिचित शब्दों को देखती रही। प्रयोगकर्ता इन शब्दों को देखकर विचित्र भाव-भंगिमाएं बनाते थे। परिणामस्वरूप अधिकांश समय यह नए शब्द प्रयोगकर्ता की देहरी तक ही पहुँच कर आगे नहीं बढ़ पाते थे और आज भी लगभग यही स्थिति है। भाषाशास्त्र के अनुसार यदि शब्दों का प्रयोग न किया जाए तो शब्द लुप्त हो जाते हैं। तो क्या राजभाषा के अनेकों शब्द प्रयोग की कसौटी पर कसे बिना ही लुप्त हो जाएंगे ? यह आशंका अब ऊभरने लगी है जबकि राजभाषा अधिकारियों की राय में इस प्रकार की सोच समय से काफी पहले की सोच कही जाएगी। राजभाषा अधिकारियों का तो कहना है कि राजभाषा की पारिभाषिक, तकनीकी आदि शब्दावलियों का खुलकर प्रयोग हो रहा है। एक हद तक यह सच भी है क्योंकि इन शब्दावलियों के प्रयोगकर्ता राजभाषा अधिकारी ही हैं। इन शब्दावलियों का अधिकांश प्रयोग अनुवाद में किया जाता है जिसे कर्मचारियों का छोटा प्रतिशत समझ पाता है। राजभाषा कार्यान्वयन की इसे एक उपलब्धि माना जाता है तथा कहा जाता है कि इन शब्दावलियों को कर्मी समझ रहे हैं अतएव इन शब्दावलियों को स्वीकार किया जा रहा है। सकार और नकार के द्वंद्व में राजभाषा ऐसे प्रगति कर रही है जैसे तूफानी दरिया में एक कश्ती। राजभाषा अधिकारी चप्पू चलाता मल्लाह की भूमिका निभाते जा रहा है।

उक्त के आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि राजभाषा अनुवाद की भाषा बन रही है ? इस पर भी अलग-अलग प्रतिक्रियाएं हैं। एक वर्ग का कहना है कि राजभाषा शब्दावली एक बेल की तरह अंग्रेज़ी के सहारे विकास कर रही है जबकि दूसरे वर्ग की राय है कि हिंदी में मौलिक रूप से राजभाषा में लेख आदि लिखे जा रहे हैं अतएव राजभाषा अपने अलग व्यक्तित्व को लेकर विकास कर रही है। यदि राजभाषा में इतना कार्य हो रहा है तो क्या यह शब्दावली सामान्य व्यक्ति तक पहुँच पा रही है ? यह एक स्वाभाविक प्रश्न है क्योंकि राजभाषा कार्यान्वयन सरकारी कार्यालयों, बैंकों आदि में हो रहा है जिससे अधिक संख्या में आम आदमी जुड़ा हुआ है अतएव प्रजातंत्र में जनसामान्य की भाषा का प्रयोग कितने हद तक सफल है इसकी भी समीक्षा की जानी चाहिए। एक स्वतंत्र समीक्षा जो विभिन्न आवधिक रिपोर्टों से अलग हो। इससे राजभाषा कार्यान्वयन की एक स्पष्ट तस्वीर ऊभरेगी तथा राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े कर्मियों को प्रोत्साहन तथा दिशानिर्देश भी प्राप्त होगा। फिलहाल यह मान लेना चाहिए कि विभिन्न कार्यालयों द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं आदि के माध्यम से राजभाषा का स्वतंत्र विकास हो रहा है। यदि राजभाषा का सर्वांगीण विकास हो रहा है तो इस लेख का आशय क्या है? इस लेख का एक आशय राजभाषा के सरलीकरण का भी है। विभिन्न मंचों से समय-समय पर राजभाषा में सरल शब्दावली के प्रयोग की चर्चा होती रहती है। इस दिशा में हिंदी के साहित्यकार काफी सहायक साबित हो सकते हैं। अपनी रचनाओं में राजभाषा का प्रयोग कर राजभाषा शब्दावली को और लोकप्रिय बना सकते हैं।

हिंदी के साहित्यकार अपनी रचनाओं में जब कभी भी सरकारी कार्यालयों के पात्रों का सृजन करते हैं तो अक्सर वह पात्र अंग्रेज़ी मिश्रित भाषा बोलता है जबकि रचनाकार यदि राजभाषा की कुछ शब्दावलियों का प्रयोग करें तो पाठक राजभाषा की शब्दावली को सहजता से स्वीकार कर सकता है। यह मात्र एक संकेत है। राजभाषा की शब्दावली को आसान करना तर्कपूर्ण नहीं है क्योंकि सरलीकरण के प्रयास से अर्थ का अनर्थ होने की संभावना रहती है। केन्द्रीय सरकार के विभिन्न कार्यालयों, उपक्रमों तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन के सघन प्रयास किया जा रहा है यदि हिंदी साहित्यकार भी इस प्रयास में योगदान करें तो राजभाषा की शब्दावली अपनी दुरूहता तथा अस्वाभाविकता के दायरे से सफलतापूर्वक बाहर निकल सकती है।

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 23 मार्च 2009

राजभाषा चौक

महानगरों तथा नगरों में राजभाषा चौक का अस्तित्व पाया जाता है। यह चौक पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से लगातार अपनी उपस्थिति में वृद्धि करते हुए प्रगति दर्ज़ करते जा रहा है। राजभाषा चौक एक विशिष्ट चौक है जिसका अस्तित्व सूक्ष्म है पर प्रभाव व्यापक है। यह चौक अपनी परिधि के अंतर्गत चलायमान है अर्थात धरती की तरह अपनी ध्रुरी पर घूमनेवाला यह एक ऐसा विलक्षण ग्रह है जिसे खगोलशास्त्री तक नहीं पकड़ पाए हैं। यह उल्लेखनीय है कि खगोलशास्त्रियों की नज़रों से बचा हुआ राजभाषा चौक नामक यह ग्रह सक्रियतापूर्वक भारत के सभी शास्त्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में व्यस्त है और प्रगति भी कर रहा है। यह चौक चूँकि सूक्ष्म है इसलिए इसको विशेष वर्ग के लोग ही देख सकते हैं जबकि सार्वजनिक तौर पर इसका अनुभव किया जा सकता। इस विशेष वर्ग में प्रमुखतया केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों के कर्मी हैं जो इस चौक से पूरी तरह से वाकिफ हैं। किसी भी नगर में इस चौक को स्थापित करने के लिए संबंधित राज्य से अनुमति नहीं लेनी पड़ती है बल्कि केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग से अनुमति प्राप्त करनी पड़ती है। सामान्यतया एक नगर में केवल एक नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के गठन की अनुमति प्राप्त होती है। इस नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति को में राजभाषा चौक के नाम से अभिव्यक्त कर रहा हूँ।

पक नगर के एक कार्यालय में राजभाषा चौक की धुरी स्थापित होती है जहाँ से इस चौक के संयोजन का कार्य होता है। इस चौक के अध्यक्ष तथा सदस्य-सचिव भी इसी कार्यालय में पदस्थ होते हैं। सामान्यतया चौक के संचालन का दायित्व सदस्य-सचिव का होता है जबकि अध्यक्ष नियंत्रण बनाए रखते हैं। गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय के सतत् निगरानी में नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति कार्यरत रहती है। इस प्रकार से चौक की गतिविधियों को संचालित किया जाता है। इस चौक पर हर किसी को आने की अनुमति नहीं है बल्कि राजभाषा चौक के सदस्य अथवा उनके प्रतिनिधि ही चौक पर विचरण कर सकते हैं। विचरण शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि वर्तमान में अधिकांश सदस्य इस चौक पर केवल विचरण करते ही पाए जाते हैं। बहुत कम सदस्य सक्रियतापूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर पाते हैं। एक समय वह भी था जबकि चौक की चमक से नगर के कार्यालयों की राजभाषा दीप्ति में चार चाँद लगा रहता था जबकि आज चौक एक अनियंत्रित गहमागहमी से भरा हुआ है। एक सक्षम, समर्थ चौक जिसके बल पर नगर में राजभाषा की मशाल प्रखरतम की जा सकती है आज अपनी क्षमता के अत्यधिक कम उपयोग से मन ही मन आहत नज़र आता है। चौक सदस्य-सचिव के हवाले कर अधिकांश सदस्य केवल विचरण करते ही नज़र आते हैं।

वर्ष में छमाही आधार पर दो बार राजभाषा चौक की बैठकें आयोजित होती हैं। इस बैठक में राजभाषा की व्यापक और सारगर्भित समीक्षा होती है, भविष्य के आयोजनों के निर्णय लिए जाते हैं। चौक के सदस्य कार्यालयों के प्रमुख अपनी उपलब्धियों को उत्साहपूर्वक चौक के अभिलेख में प्रविष्ट कराते हैं। एक बेहतरीन योजना बनाई जाती है और उसके सफल कार्यान्वयन का वायदा कर सभा समाप्त होती है। नगर में राजभाषा कार्यान्वयन को नई उर्जा, नई दिशा आदि प्रदान करने में इस चौक का उल्लेखनीय योगदान रहता है। चौक की जब बैठक आयोजित होती है तो चौक झूम उठता है। सदस्य-सचिव की भाग-दौड़ चौक की बैठक को गंभीरता प्रदान करते रहता है। राजभाषा अधिकारियों का झुंड एक तरफ अपने सुख-दुःख की चर्चा करते हुए अपनी बेबाक समीक्षाओं में खोया रहता है। विभिन्न कार्यालयों के उच्चाधिकारी अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए फाईलों में डूबे रहते हैं। यहाँ पर एक बौद्धिकतापूर्ण गंभीरता पसरी रहती है, अपने-अपने दायरे को बखूबी बयाँ करते हुए। बीचृ-बीच में सबकी नज़रें सदस्य-सचिव को तलाशते रहती हैं क्योंकि सदस्य-सचिव की गतिविधियाँ बैठक के आरम्भ होने के समय का संकेत देती रहती हैं। चौक जगमग-जगमग करते रहता है।

अचानक फोटोग्राफर सक्रियतापूर्वक कैमरे के लेन्स को व्यवस्थित करते हुए फोटो मुद्रा में प्रवेश करता है और सभी राजभाषा अधिकारी अपनी-अपनी जगह पकड़ लेते हैं। यह गतिविधि अध्यक्ष, अतिथियों आदि के आगमन का स्पष्ट संकेत होता है। तालियां बजती हैं, अध्यक्ष आदि मंच को सुशोभित करते हैं। ऐसे अवसरों पर अक्सर तालियाँ थकी-थकी सी लगती हैं जैसे एक ऐसी औपचारिकता का निर्वाह कर रही हैं जिसकी वह अभ्यस्त हो चुकी हैं। सदस्य-सचिव द्वारा कार्यवाही आरम्भ की जाती है तथा निर्धारित परम्परा के अनुसार बैठक गतिशील होती है। वार्षिक कार्यक्रम के अनुसार हिंदी पत्राचार के लक्ष्य प्राप्त करनेवाले कार्यालय की प्रशंसा में तालियाँ बजती है तथा उस कार्यालय के उच्चाधिकारी आश्चर्यचकित होकर सभा को देखते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि कार्यालय के सभी पत्रों पर प्राय: उनका हस्ताक्षर रहता है फिर हिंदी में इतने सारे पत्र कब और कैसे लिखे गए ? उन्हें भी मालूम रहता है कि ऐसे प्रश्नों के उत्तर चौक में नहीं दिए जाते हैं इसलिए जो हो रहा है उसे होने दें, शायद चौक की यही परम्परा भी है। इस सोच के विश्लेषण की आवश्यकता है। यदा-कदा ही उच्चाधिकारियों को चौक में बोलते हुए सुना जाता है अन्यथा उनकी भूमिका एक आवश्यकता पूर्ति की ही होती है।

चौक में एक व्यक्ति हमेशा तनावपूर्ण व्यस्त रहता है तथा जो सदस्य-सचिव के चेहरे पर स्पष्ट झलकते रहता है। बैठक ठीक-ठाक संपन्न होने की चिंता की चादर में लिपटे सदस्य-सचिव की व्यथा को किसी से क्या लेना-देना ? अपने-अपने कार्यालय की सबको पड़ी रहती है तथा सदस्य़ यह भूल जाते हैं कि चौक किसी एक का नहीं है बल्कि यह साझा है। चौक की पत्रिका प्रकाशित की जानी है तो यह सदस्य-सचिव जाने, राजभाषा कार्यान्वयन के विभिन्न आयोजन किए जाने हैं तो सदस्य-सचिव सोचे, हमें क्या ? इस बेरूख़ी से सदस्य-सचिव कभी अपना दुःख प्रकट नहीं करता है इसलिए नहीं कि वह कर नहीं सकता बल्कि इसलिए कि चौक के दायित्वों की समन्वयक की भूमिका का निर्वाह जो करना है। सबको पुष्पों की तरह चौक में पिरोए रखना सदस्य-सचिव का सर्वप्रमुख कार्य जो है। अधिकांश सदस्यों की चौक उत्सवों में सहभागिता अपने कार्यालय को शिकायतमुक्त रखने तथा चौक के पुरस्कार पाने तक ही सीमित है। किसी अन्य दायित्व से जितना बचा जा सके उतना अच्छा है का सिद्धांत अब तक सदस्यों को सफलता देते आया है। इस सोच को परिवर्तित करने का दायित्व भी यदि सदस्य-सचिव पर डाला जाए तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि सदस्य-सचिव का भगवान भला करे।

नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति को नराकास के रूप में संचालित करनेवाली समितियों की संख्या काफी कम है। यदि देश की सभी नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियाँ पूर्णतया सक्रिय होकर तथा सभी सदस्यों के रचनात्मक सहयोग के साथ कार्य करें तो निश्चित ही राजभाषा चौक जैसा विचार लुप्त हो जएगा तथा नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति अपने उद्देश्यों को बखूबी निभा पाएगी। यदि सभी राजभाषा अधिकारी एक साथ मिलकर राजभाषा कार्यान्वयन के लिए कार्य नहीं करेंगें तब तक राजभाषा चौक की सोच समाप्त नहीं हो सकती है। उपलब्धियों का कोई अन्त नहीं है, संभावनाओं की कोई सीमा नहीं है तथा क्षमताओं की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है क्या इन मूलभूत बातों की चर्चा चौक के लिए प्रासंगिक और शोभनीय है ? स्वप्रेरणा और स्वपहल के आकाश तले,
कीर्तिमानों के पताकों के साथ खड़ी है एक निनाद की प्रतीक्षा में, एक हुंकार के आगाज़ में। राजभाषा चौक भौंचक हो दिग्भ्रमित राजभाषा अधिकारियों की गतिविधियों को मूक हो निरख रहा है और वक्त इतिहास में सब यथावत दर्ज़ करते जा रहा है।
धीरेन्द्र सिंह.