गुरुवार, 3 नवंबर 2011

राजभाषा और कार्यपालक – एक युग्म ; एक द्वंद्व


भारत सरकार की राजभाषा नीति के तहत राजभाषा कार्यान्यवन का प्रमुख दायित्व राजभाषा कार्यान्यवन समिति के अध्यक्ष का होता है तथा उस कार्यालय में पदस्थ राजभाषा अधिकारी इस समिति के पदेन सदस्य-सचिव के रूप में कार्यरत रहता है। किसी भी सरकारी कार्यालय, उपक्रम, बैंक में राजभाषा कार्यान्यवन एवं कार्यपालक का सीधा संबंध होता है जिसमें राजभाषा अधिकारी और राजभाषा विभाग एक सेतु की भूमिका निभाता है। वर्तमान के सरकारी कार्यालयों के राजभाषा परिवेश का आकलन करने पर यह स्थिति उभरती है कि राजभाषा कार्यान्यवन का सम्पूर्ण दायित्व राजभाषा अधिकारी और राजभाषा विभाग पर होता है और कार्यपालक विशेष अवसरों पर ही कर्मचारियों से राजभाषाविषय पर जुड़ते हैं। प्रथम दृष्टया यह एक गंभीर मुद्दा प्रतीत नहीं होता है किन्तु यदि गहनतापूर्वक इसका अवलोकन किया जाये तो यह स्थिति उभरती है कि यदा-कदा राजभाषा सहित कर्मचारियों से जुड़ने पर कार्यालय विशेष में निम्नलिखित स्थिति निर्मित हो जाती है :-

1 राजभाषा कार्यान्यवन का सम्पूर्ण दायित्व व्यावहारिक रूप में राजभाषा अधिकारी और राजभाषा विभाग पर आ जाता है। इससे राजभाषा कार्यान्यवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि राजभाषा कार्यान्यवन के लिए उच्च पद का सतत जुड़ा रहना आवश्यक है और अधिकांश कार्यालयों में राजभाषा अधिकारी उच्च पदों तक अभी नहीं पहुँच सके हैं।

2 कार्यपालकों का राजभाषा से सतत न जुड़ा होने के कारण प्रायः अनजाने में धारा 3(3) के दस्तावेजों को केवल अँग्रेजी में जारी होने का अंदेशा बना रहता है। इस प्रकार राजभाषा कार्यान्यवन के एक प्रमुख मद में दस्तावेज़ का द्विभाषिक रूप में जारी नहीं हो पाने का खतरा बना रहता है और इस प्रकार एकल भाषा यथा अँग्रेजी में जारी दस्तावेज़ राजभाषा कार्यान्यवन पर एक प्रतिकूल प्रभाव भी छोड़ सकते हैं।

3 कार्यालय के विभिन्न विभागीय बैठकों में राजभाषा अधिकारी कि सहभागिता सुनिश्चित नहीं किए जाने कि संभावना रहती है क्योंकि कार्यपालक को शायद यह याद ना आए कि नियमानुसार विभागीय बैठकों में राजभाषा अधिकारी की सहभागिता सुनिश्चित की जानी चाहिए। परिणामस्वरूप बैठकों में ना तो राजभाषा की चर्चा हो पाती है और ना ही राजभाषा कार्यान्यवन की समीक्षा।

इस प्रकार कई मुद्दे हैं जिनकी चर्चा की जा सकती है किन्तु यहाँ पर कमियों पर चर्चा करना उद्देश्य नहीं है बल्कि राजभाषा की स्थितियों में सुधार की कोशिश है। राजभाषा नीति, वार्षिक कार्यक्रम आदि में राजभाषा कार्यान्यवन समिति के अध्यक्ष अर्थात कार्यपालक की भूमिका को बखूबी स्पष्ट किया गया है मस्या है कार्यान्यवन की। यदि विश्लेषण किया जाये तो यह तथ्य स्पष्ट होगा कि वर्षों बीत गए हैं किन्तु कार्यपालक को राजभाषा पर ना तो कोई प्रशिक्षण प्राप्त हुआ है और ना ही भाषागत राजभाषा संगोष्ठी आदि में उन्हें उनकी सहभागिता हुयी है जिससे राजभाषा के वर्तमान और अद्यतन प्रगति की सम्पूर्ण सूचनाएँ उन तक नहीं पहुँच पाती हैं। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि राजभाषा कार्यान्यवन वर्तमान में राजभाषा अधिकारी और राजभाषा विभाग के इर्द-गिर्द ही घूम रही है और कार्यपालक केवल अति आवश्यक होने पर राजभाषा से जुड़ते प्रतीत होते हैं। राजभाषा कार्यान्यवन की दिशा में यह एक चिंताजनक स्थिति निर्मित हो रही है जिसके लिए कार्यपालक कतई जिम्मेदार नहीं हैं। तस्वीर का दूसरा पक्ष यह है कि सांवैधानिक दायित्यों को छोड़कर कोई अन्य दायित्व ही नहीं दिखलाई पड़ता है जिसके लिए कार्यपालक राजभाषा से सतत स्वयं को जोड़े रखें। यहाँ सतत राजभाषा से जोड़े रखने का अभिप्राय यह है कि कार्यालय की नित-प्रतिदिन की गतिविधियों से केवल जुड़ा ही नहीं रहना बल्कि उसमें अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर कार्यान्यवन में गुणात्मक वृद्धि करना। यूं तो कार्यपालक राजभाषा के महत्वपूर्ण पत्रों आदि पर हस्ताक्षर कर स्वयं के जुड़े रहने की बात कर सकते हैं किन्तु केवल हस्ताक्षर मात्र से कार्यान्यवन ऊंचाई नहीं छू सकती उसके लिए कार्यपालक की सक्रिय सहभागिता भी अपेक्षित है। केवल राजभाषा अधिकारी के लिखे पत्रों पर हस्ताक्षर करने से कार्यान्यवन को सही दिशा नहीं मिलेगी बल्कि उसके लिए कार्यपालक को प्रत्येक पत्र आदि के विषय वस्तु का गहराई से और व्यापक निरीक्षण करना भी आवश्यक है। इस विषय पर निम्नलिखित मदें सहायक हो सकती हैं :-

1 दो वर्ष में एक बार कार्यपालकों को राजभाषा नीति एवं राजभाषा जगत की नवीनतम उपलब्धियों की जानकारी दी जाये। इसके लिए प्रशिक्षण, सेमिनार, संगोष्ठी आदि का सुविधानुसार चयन किया जा सकता है।

2 क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय द्वारा इस दिशा में विशेष पहल की जानी चाहिए।

3 संबन्धित कार्यालय के मंत्रालय द्वारा भी इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाने से एक नयी गति मिलने की संभावना है।


4  राजभाषा कार्यान्यवन समिति की बैठक में यथासंभव कार्यालय के सभी कार्यपालकों की सहभागिता सुनिश्चित की जाये और राजभाषा की नवीनतम स्थितियों की जानकारी दी जाये। कार्यसूची में इसे एक स्थायी मद के रूप में सम्मिलित किया जा सकता है।

किसी भी कार्यालय के कार्यपालक राजभाषा से मिलकर एक सशक्त दीप्तिपूर्ण युग्म का निर्माण करते हैं जिससे उस कार्यालय में राजभाषा कार्यान्यवन को नयी गति और दिशा प्राप्त होती है। राजभाषा से कार्यपालक के सतत जुड़े रहने से कार्यालय के सभी कर्मचारी स्वतः राजभाषा से जुड़ जाते हैं और तब वह सब राजभाषा में अपना सर्वोत्तम कार्यनिष्पादन दर्शाते हैं। राजभाषा नीति, वार्षिक कार्यक्रम, राजभाषा के विभिन्न मंच भी तो यही बातें करते हैं किन्तु फिर भी बात पूरी तरह नहीं बनती है जिसके लिए जिम्मेदार है राजभाषा की सूचनाओं का पूर्णतया कार्यपालक तक न पहुँच पाना।

कार्यपालक और राजभाषा के बीच कार्यान्यवन का द्वंद्व अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका है। अतएव इस अव्यवहारिक द्वंद्व को परिणामदायी युग्म में परिवर्तित करने का दायित्व उस कार्यालय के राजभाषा विभाग का न होकर राजभाषा के अन्य महत्वपूर्ण कार्यालयों का है जिसमें क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय और संबन्धित कार्यालय के मंत्रालय का उल्लेख पहले भी किया जा चुका है। राजभाषा कार्यान्यवन का प्रवाह कार्यपालक की टेबल तक पहुंचे इसके लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य करना आवश्यक है अन्यथा राजभाषा कार्यान्यवन विभिन्न कार्यालयों के राजभाषा विभाग की परिक्रमा ही करता रहेगा और उसमें अपेक्षित निखार, शृंगार और झंकार नहीं उत्पन्न हो सकता।     



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