रविवार, 17 मार्च 2013

राजभाषा हो जाना


किसी भी प्रीति की प्रतीति समर्पित मनोभावों और प्रतिबद्ध अभिव्यक्ति से होती है। शाब्दिक प्रीति क्षणभंगुर होती है बुलबुले की तरह। इस वाक्य को लिखने के पीछे राजभाषा के एक विशाल अनुभव की शक्ति है जो स्पष्ट दर्शा रही है कि राजभाषा कार्यान्यवन से सीधे जुड़े अधिकांश लोग अस्थायी, आकस्मिक और अवसरवादी प्रवृत्ति से घिरे जा रहे हैं। यह वाक्य सीधे एक आक्षेप और प्रहार भी कहा जा सकता है किन्तु विश्लेषण का सत्य इसी दिशा की ओर इंगित करता है। इस संदर्भ में कुछ दिन पहले की घटना का उल्लेख प्रासंगिक होगा। 25 वर्ष से भी अधिक समय से राजभाषा की रोटी खानेवाले एक अधिकारी ने फुरसतिया बातचीत के दौरान कहा कि अभी 100 वर्ष और बीत जाएंगे फिर भी राजभाषा नहीं आएगी। इस वाक्य को इतनी हिकारत भरे लहजे में कहा कि लगा जैसे यकायक एक बिजली सी मुझमें उतर गयी हो। एक स्वाभाविक उभरता हुआ सवाल यहाँ यह है कि राजभाषा कार्यान्यवन से सीधे जुड़े लोग भी कितना राजभाषा को समझते हैं? गहनतापूर्वक और सुगमतापूर्वक राजभाषा कार्यान्यवन का निरीक्षण किया जाये तो स्पष्ट होगा कि पिछले दो दशकों में राजभाषा काफी प्रगति कर चुकी है।

समय चक्र के साथ राजभाषा कार्यान्यवन से जुड़े लोग बदल भी रहे हैं। अनुभवी लोग सेवानिवृत्त हो रहे हैं और नए और युवा चेहरे राजभाषा की कमान संभालने की तैयारी में लगे हैं। राजभाषा कार्यान्यवन के इस संक्रांति बेला में यह स्पष्ट है कि राजभाषा के बारे में अधिकांश सेवानिवृत्त हो रहे अनुभवी अपने अनुभव के नाम पर राजभाषा को अपनी कुंठाओं में लपेट कर धरोहर में दे रहे हैं जिसे नए राजभाषा अधिकारी विस्मय और उलझनपूर्ण मनःस्थिति से झिझकते हुये स्वीकार कर रहे हैं। राजभाषा कार्यान्यवन का यथार्थ कार्यालयों में बिखरा पड़ा है जिसे नए राजभाषा अधिकारी देख नहीं पा रहे हैं। देख नहीं पाने के लिए नए राजभाषा अधिकारी जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि कार्यान्यवन की वर्तमान प्रणाली दोषी है जिसमें स्वस्थ दृष्टि का अभाव है। नए राजभाषा अधिकारियों के राजभाषा विषयक प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर अनुभवी राजभाषा अधिकारियों से ना मिल पाना एक त्रासदीपूर्ण स्थिति है। कार्यान्यवन के भव्य रथ पर आरूढ़ राजभाषा आज समर्पित और कर्मठ राजभाषा अधिकारियों की तलाश में है, ठीक नए राजभाषा अधिकारियों की मानिंद।

क्या सचमुच कर्मठ और समर्पित राजभाषा अधिकारियों का अभाव है ? इसका उत्तर है हाँ, किन्तु इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न है कि क्या राजभाषा अधिकारियों में प्रतिभा की कमी है? इसका उत्तर है ना। राजभाषा अधिकारियों के इस हाँ और ना की स्थिति के बीच में राजभाषा कार्यान्यवन कहीं उलझा-उलझा सा गतिमान है। राजभाषा अधिकारियों की प्रतिभा भ्रमित हो गयी है। अधिकांश राजभाषा अधिकारी राजभाषा के पद को प्रगति के आरंभिक और पायदान के रूप में उपयोग कर अपने कैरियर को ऊंचे से ऊंचे पद तक ले जाना चाहते हैं। पद लिप्सा ने अधिकांश राजभाषा अधिकारियों की चेतना से राजभाषा को दूर कर दिया परिणामस्वरूप राजभाषा अधिकारी का पदनाम ना तो राजभाषा का रहा और ना ही कार्यान्यवन से पूरा जुड़ पाया। ऐसे अधिकारी  केवल पद प्राप्ति साधना में अपनी प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं। ऊंचा पद प्राप्त करना प्रत्येक कर्मचारी की एक सहज जिज्ञासा और आकांक्षा है, लेकिन राजभाषा के नाम पर पदोन्नति का यह खेल कहीं ना कहीं कार्यान्यवन को प्रभावित कर रहा है और कार्यान्यवन की छवि धूमिल हो रही है जो एक बड़ी हानि है।

नए राजभाषा अधिकारियों में कार्यान्यवन की उत्कंठा है, कार्यान्यवन की प्रणाली को समझने की स्वाभाविक ललक है ऐसे में उन्हें सही और सटीक उत्तर देने के बजाय यदि दार्शनिक लहजे में कार्यान्यवन को बतलाया जाये तो यह राजभाषा कार्यान्यवन के प्रति न्याय कदापि नहीं माना जाएगा। पानी में कूद जाओ तैरना खुद आ जाएगा जैसा जुमला कार्यान्यवन में लागू नहीं होते हैं। राजभाषा कार्यान्यवन एक गंभीर और महत्वपूर्ण विषय है जिसके लिए प्रतिबद्ध, समर्पित और सार्थक प्रयासों की आवश्यकता होती है। राजभाषा कार्यान्यवन की शाखाएँ-प्रशाखाएँ अनेक हैं जिनको सहेजने, संयोजने और सँवारने में राजभाषा अधिकारी का पूरा वक़्त चला जाता है। राजभाषा के अतिरिक्त कार्यालय के अन्य विभागों के दायित्व को संभालने वाले राजभाषा अधिकारी कुछ भी कहें किन्तु यह स्पष्ट है कि ऐसे अधिकारी राजभाषा कार्यान्यवन से गंभीरतापूर्वक नहीं जुड़े हैं अतएव नए राजभाषा अधिकारियों को ऐसे अधिकारियों की कार्यान्यवन विषयक सलाहों को गंभीरतापूर्वक नहीं लेना चाहिए।

राजभाषा कार्यान्यवन, कार्यालय के कर्मियों, राजभाषा नीति और वार्षिक कार्यक्रम के लक्ष्यों की जुगलबंदी है। यह जुगलबंदी जितनी सुसंगत, सुमधुर और सुरअर्जित होगी कार्यान्यवन उतना ही प्रखर और परिणामदाई होगा। जिस तरह जुगालबंदी में साज-साज़िंदे और गायक अपनी-अपनी धुन में डूब जाते हैं वही अंदाज़ राजभाषा कार्यान्यवन में भी अपेक्षित है। यदि राजभाषा अधिकारी राजभाषा के राग-रागिनियों में डूबकर अपने कार्यालय को एक राजभाषा की नयी धुन और अंदाज़ से सजाने का प्रयास करता है तो सम्पूर्ण कार्यालय उसके इस प्रयास की सराहना करता है। इस क्रम में प्राप्त राजभाषा की उपलब्धियां राजभाषा अधिकारी के छवि में निखार लाती है और सम्पूर्ण कार्यालय राजभाषा अधिकारी के प्रयासों का कायल हो जाता है। राजभाषा अधिकारी उस समय एक सफल राजभाषा माना जाता है जब वह मात्र पदनाम के लिए राजभाषा अधिकारी नहीं रहता बल्कि वह राजभाषा हो जाता है। राजभाषा हो चुके राजभाषा अधिकारी ही कार्यान्यवन के क्षेत्र में नए कीर्तमान स्थापित कर राजभाषा कार्यान्यवन को एक नयी ऊंचाई प्रदान कर रहे हैं।   
           


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गुरुवार, 1 नवंबर 2012

राजभाषा कहें या हिन्दी


सरकारी कार्यालयों में राजभाषा शब्द बहुत कम सुनाई पड़ता है अधिकतर हिन्दी शब्द का ही चलन है। इसका विपरीत प्रभाव राजभाषा के बुनियादी ढांचे पर पड़ा है। कार्यालयों में हिन्दी शब्द के प्रचलित हो जाने से राजभाषा शब्द के संग जो गंभीरता होनी चाहिए थी वह निर्मित नहीं हो पायी है। हिन्दी की जगह राजभाषा शब्द के प्रचलन से कार्यालयों में राजभाषा के प्रति एक स्वाभाविक रुझान बढ़ता किन्तु आरंभ से हिन्दी विभाग, हिन्दी अधिकारी, हिन्दी की तिमाही रिपोर्ट आदि शब्दों ने कार्यालय कर्मियों के दिल-दिमाग में बसना आरंभ किया और अब हिन्दी ने अपनी एक जगह बना ली है। राजभाषा शब्द का प्रयोग यदा-कदा ही होता है। हिन्दी अपनी सशक्त उपस्थिति और लोकप्रियता के कारण कार्यालयों में राजभाषा शब्द को प्रचलित नहीं होने दे रही है। अगर विशेष प्रयास किया जाये तब राजभाषा जबान पर चढ़ती है पर इतनी कोशिश करनेवाले भी कम हैं। दूसरी बात यह है की अगर जबान पर चढ़ी हिन्दी से काम चल जाता है तो राजभाषा से नया रिश्ता क्यों जोड़ा जाय, यह धारणा भी कार्य करती है।

हिन्दी की तिमाही रिपोर्ट का नाम राजभाषा की तिमाही रिपोर्ट होना उचित होगा। चूंकि यह रिपोर्ट राजभाषा कार्यान्यवन की एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट है इसलिए यदि इस रिपोर्ट का नाम राजभाषा की तिमाही रिपोर्ट हो जाएगा तो कर्मियों द्वारा तत्काल ही राजभाषा शब्द को अपनाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी। राजभाषा विषयक विभिन्न बैठकों, अवसरों आदि पर राजभाषा के बजाय हिन्दी शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाना राजभाषा के निर्माणाधीन कार्य संस्कृति को प्रभावित करता है। यदि राजभाषा शब्द को लोकप्रिय बनाने का सघन प्रयास नहीं किया जाएगा तो कालांतर में राजभाषा और हिन्दी के मध्य अस्तित्व का एक अंतर्द्वंद आरंभ हो सकता है जिसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव राजभाषा पर पड़ेगा। यह पाया गया है कि राजभाषा विषयक प्राप्त पत्रों पर अंग्रेजी में टिप्पणी सामान्यतया ओ एल (आफ़िसियल लेंग्वेज) शब्द के साथ लिखी जाती है किन्तु ऐसे पत्रों पर सामान्यतया हिन्दी में टिप्पणी लिखते समय राजभाषा के बजाय हिन्दी शब्द का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी की तिमाही रिपोर्ट नाम राजभाषा के स्थान पर हिन्दी शब्द प्रयोग करने के प्रमुख कारणों में एक है।

हिन्दी दिवस का आयोजन – यह वाक्य इतना सशक्त और प्रभावशाली है कि इसका प्रभाव न केवल कार्यालय पर बल्कि समाज पर भी पड़ता है। हिन्दी दिवस को यदि राजभाषा दिवस लिखा जाय तो राजभाषा का महत्व और उसकी उपयोगिता और प्रखर रूप से मुखरित होगी। बैनर, निमंत्रण पत्र, प्रेस विज्ञप्ति आदि में यदि हिन्दी दिवस शब्द का प्रयोग किया जाएगा तो स्वाभाविक रूप से हिन्दी दिवस शब्द ही प्रयोग किया जाएगा और राजभाषा शब्द नैपथ्य में रह जाएगा। हिन्दी शब्द अपने संग बोलचाल की हिन्दी का विभिन्न और व्यापक रूप लेकर आती है जिससे कार्यालय का प्रत्येक कर्मी काफी जुड़ा हुआ अनुभव करता है और अपने कामकाज में परिचित शब्दावलियों, वाक्य संरचनाओं आदि को लाने का प्रयास करता है जिसे राजभाषा सहजता से स्वीकार नहीं करती है। एक तरफ हिन्दी शब्द का वृहद स्तर पर प्रयोग और दूसरी तरफ राजभाषा कार्यान्यवन का प्रयास और इनके मध्य उलझन भरा प्रयोगकर्ता जो पारिभाषिक, तकनीकी आदि शब्दों में भी बोलचाल की हिन्दी की सरलता और सहजता को ढूंढता है।

हिन्दी नित प्रतिदिन अपने विभिन्न रूप-रंगों, अंदाज़-विन्यास में प्रगति करती जा रही है और अपना नया स्थान निर्मित कर रही है। राजभाषा भी अपनी नयी शब्दावलियों से सज-धज रही है। हिन्दी एक वट वृक्ष की तरह है जबकि अपनी पूरी संभावनाओं के संग स्थूलतः राजभाषा एक पौधे के रूप में ही पनप पायी है। राजभाषा के वट वृक्ष के निर्मित होने की संभावनाएँ हैं किन्तु हिन्दी के चादर तले राजभाषा दबी हुयी प्रतीत होती है। हिन्दी का राजभाषा पर यह दबाव अनायास हो गया है। एक-दूसरे में घुली-मिली, रची-बसी राजभाषा और हिन्दी अपने मध्य विभाजन की एक हल्की लकीर भी खींचने की अनुमति नहीं देती है। देवनागरी लिपि की हिन्दी और राजभाषा की चर्चा करना ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि गंगा और यमुना की चर्चा की जा रही हो। देवनागरी लिपि का यह भाषाई संगम देवनागरी लिपि की क्षमता का परिचायक है किन्तु इतनी विविधता और वैशिष्ठ्य के बाद यह प्रश्न उभरता है कि राजभाषा कहें या हिन्दी?

हिन्दी के बजाय राजभाषा शब्द का प्रयोग करना इसलिए आवश्यक है कि इससे व्यवहार में प्रयोग हेतु  राजभाषा को अपना स्थान मिल सकेगा। हिन्दी शब्द के प्रयोग से कामकाज की भाषा में जिस सरलता और सहजता की मांग स्वतः उठती है उसपर रोक लग सकेगी। राजभाषा शब्द के प्रचलन और लोकप्रियता से सरकारी कामकाज में राजभाषा और गहरी पैठ लगाने में सफल होगी। राजभाषा शब्द जितना लोकप्रिय होगा उतनी ही सरलता से सरकारी कर्मी पारिभाषिक और तकनीकी शब्दों को अपनाएँगे। राजभाषा शब्द यदि जुबान पर चढ़ जाएगा तो हिन्दी और राजभाषा के मध्य एक हल्की विभाजन रेखा निर्मित हो सकेगी जो अलगाव का प्रतीक ना होकर संगम का एहसास देगी। अतएव राजभाषा को राजभाषा कहें और सरकारी कार्यालयों में अपेक्षाकृत हिन्दी शब्द का कम प्रयोग करें तो यह राजभाषा कार्यान्यवन के लिए सहायक साबित होगा।  



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शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति-दायित्व व कार्यनिष्पादन


नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति राजभाषा जगत का एक ऐसा मंच है जहां पर नगर में स्थित बैंकों, उपक्रमों और सरकारी कार्यालयों की राजभाषा गतिविधियां अपने आकर्षक, अद्भुद और अविवादी रूप में मुखरित होती हैं। इस समिति में सदस्य कार्यालयों के प्रमुख और राजभाषा अधिकारी होते हैं जिनके राजभाषा मंथन को भारत सरकार, गृह मंत्रालय, क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय के उप-निदेशक की निगरानी में सर्वसहमति से निर्णय तक पहुंचाया जाता है। नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति का संयोजक क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय द्वारा अनुशंसित तथा गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, नई दिल्ली द्वारा अनुमोदित कार्यालय होता है यद्यपि यह एक ऐसा मंच है जहां प्रत्येक सदस्य को बराबर का अधिकार है जबकि संयोजक कार्यालय केवल समन्वयक की भूमिका निभाता है। इसलिए यह समिति समस्त सदस्यों की अपनी समिति होती है जहां पर सर्वसहमति से राजभाषा विषयक निर्णय लिए जाते है और कार्यान्वित किए जाते हैं।

      गठन : नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियों के गठन के लिए दिनांक 22.11.1976 को गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, नई दिल्ली का कार्यालय ज्ञापन संख्या 1/14011/12/76 रा.भा. (का.1) आधार है जिसके दिशानिर्देशों के अनुरूप जिन नगरों में बैंकों, उपक्रमों के या केंद्रीय कार्यालयों के 10 या उससे अधिक कार्यालय हों वहाँ पर नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति का गठन किया जा सकता है।

      गठन की प्रक्रिया : गठन की प्रक्रिया आरंभ में श्रमसाध्य प्रतीत होती है क्योंकि किसी एक कार्यालय पर यह दायित्व होता है कि वह संयोजक का दायित्व संभाले। इस दायित्व में स्वेच्छा से की गयी पहल का महत्व होता है। यदि नगर में प्रचुर संख्या में कार्यालय नहीं होते हैं तो केंद्रीय कार्यालयों में से वह कार्यालय जिसमें वरिष्ठतम अधिकारी होते हैं वह कार्यालय संयोजन का दायित्व लेता है और उसमें बैंक और वित्तीय संस्थाएं भी सदस्य होती हैं। यदि नगर में बैंक के अधिक कार्यालय होते हैं तो वहाँ बैंकोंतथा वित्तीय संस्थाओं की अलग समिति होती है और केंद्रीय कार्यालयों की अलग, इस प्रकार एक नगर में दो समितियां कार्य करती हैं जिनका अलग-अलग कार्य क्षेत्र होता है। संयोजन का दायित्व वहन करनेवाला कार्यालय अपने क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय को सहमति पत्र देता है। वहाँ से अनुशंसित होकर पत्र राजभाषा विभाग, नई दिल्ली जाता है जहां पर सचिव (राजभाषा) उस नगर में नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति के गठन की अनुमति प्रदान करते हैं और इस प्रकार समिति अस्तित्व में आती है।

      उद्देश्य : इस समिति का प्रमुख उद्देश्य केंद्रीय सरकार के कार्यालयों/उपक्रमों/बैंकों आदि में राजभाषा नीति के कार्यान्यवन की समीक्षा करना, इसे बढ़ावा देना और इसके मार्ग में आई कठिनाईयों को दूर करना है।

      सदस्य बैंकों के दायित्व : नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति (नराकास) की सक्रियता और लोकप्रियता केवल संयोजक बैंक के ऊपर ही आश्रित नहीं रहती है बल्कि नराकास की सफलता सदस्य बैंकों के सक्रिय योगदान पर भी निर्भर करता है। चूंकि नराकास में सभी सदस्य बैंकों का बराबर का योगदान अपेक्षित है इसलिए प्रत्येक बैंक का नराकास के प्रति कुछ दायित्व है जिनमें से कुछ प्रमुख दायित्व निम्नलिखित हैं :-

(1)  राजभाषा अधिकारी की सक्रियता : नियमतः नराकास के सदस्य नगर स्थित कार्यालयों के वरिष्ठतम अधिकारी होते हैं तथा उस कार्यालय के राजभाषा अधिकारी उनकी सहायता के लिए होते हैं। नराकास और अपने कार्यालय के बीच राजभाषा अधिकारी एक सशक्त सेतु की भूमिका निभाता और महत्वपूर्ण पक्षों पर अपने कार्यालय के अध्यक्ष को समय-समय पर सूचित करता है, सलाह देता है और संयोजन करता है। जिस कार्यालय का राजभाषा अधिकारी जितना अधिक सक्रिय होगा वह उतना ही अधिक उसका कार्यालय नराकास में योगदान देने में अग्रणी होगा।

(2) समिति की बैठक में सहभागिता : भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग से यह स्पष्ट दिशनिर्देश जारी किया जा चुका है कि नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति की बैठक में कार्यालय के वरिष्ठतम अधिकारी सहभागी हों। इसके अतिरिक्त नराकास भी अनेकों बार इस अनुदेश का उल्लेख कराते रहती है किन्तु यह पाया गया है कि कई बार कार्यालय अध्यक्ष तथा उनके बाद के अधिकारी नहीं आते हैं और किसी ऐसे अधिकारी को समिति में सहभागिता हेतु भेजा जाता है जो राजभाषा के नीतिगत और अर्थगत निर्णयों में स्वतंत्र होकर भाग नहीं ले पाते हैं। ऐसी स्थिति में कार्यालय की सहभागिता कागज पर तो हो जाती है किन्तु यह सहभागिता परिणाममूलक नहीं हो पाती है। सदस्य बैंक को यह समझना चाहिए कि यदि उनके कार्यालय के वरिष्ठतम अधिकारी बैठक में भाग लेंगे तो उनके विचार, सुझाव से राजभाषा की गति में वृद्धि होगी।

(3)समय पर अंशदान देना : नराकास की बैठक में निर्धारित अंशदान राशि को समय से देने में भी कुछ सदस्य पीछे रह जाते हैं जिसकी वजह एकमात्र शिथिलता है। समय से अंशदान प्राप्त ना होने पर समिति अपने आयोजनों आदि को मूर्त रूप देने में कृपण होकर कार्य करती है। प्रसंगवश यहाँ एक तथ्य प्रस्तुत किया जा रहा है कि नराकास के अंशदान के नोट को स्वीकृति देने में उच्चाधिकारी पल भर भी विलंब नहीं कराते हैं। यहाँ पर चूक आरंभिक स्तर पर पेपर को गति देने में होती है। सदस्यों को अपने इस दायित्व को भी समय से पूर्ण कर लेना चाहिए।

(4) सदस्य-सचिव और सदस्यों से आपसी संपर्क : सदस्य कार्यालयों के राजभाषा अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे नराकास में कुछ नया करने के लिए आपस में संवाद बनाए रखें। समिति की बैठक में या नराकास के आयोजन में ही स्थापित करने से नराकास सक्रिय नहीं होगी इसके लिए सतत योजना, विचार मंथन चलते रहना चाहिए। जहां इस दायित्व में कमी होती है वहाँ की समिति अपनी विशिष्ट पहचान निर्मित करने में सफल नहीं हो पाती है।

(5) समस्या संग सुझाव भी दें: सामान्यतया यह पाया गया है कि सदस्य समस्याएँ तो रख देते हैं और उसके समाधान के बारे में अपनी राय प्रस्तुत नहीं करते हैं। समिति की बैठक में यह सोचकर नहीं सम्मिलित होना चाहिए कि समस्या का हल मंच देगा। यह एक स्वस्थ सहभागिता नहीं है आखिर यह समिति सबकी है इसलिए मंच पर पूरी तरह निर्भर होने के बजाय समस्या के संग एक समाधान प्रस्तुत करना सदस्य का दायित्व है।

(6) नराकास को कार्यालय से जोड़ें : नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति को सदस्य कार्यालयों से जोड़ने का दायित्व राजभाषा अधिकारियों का है। अपने-अपने कार्यालयों की राजभाषा की बैठक में नराकास का ज़िक्र होना चाहिए, उसकी उपलब्धियों का उल्लेख करना चाहिए और स्टाफ सदस्यों के समक्ष नाराकस की बेहतर तस्वीर प्रस्तुत करना चाहिए। यदि राजभाषा अधिकारी यह प्रयास करेंगे तो कार्यालय अध्यक्ष भी नराकास पर अपनी राय प्रस्तुत करेंगे जिससे कार्यालय में राजभाषा कार्यान्यवन का एक बेहतर माहौल पैदा होगा।

निष्पादन बेहतर बनाने के उपाय पर यदि सोचा जाय तो एक त्रिकोणात्मक स्थिति निर्मित होती है जो निम्नलिखित है :

    राजभाषा कार्यान्यवन समिति तो एक हीरे की तरह है उसे जितना तराशा जाये उतना ही निखार आता है। इसे तराशने का अवसर प्रमुखतया तीन लोगों को मिलता है जो हैं 1. उच्चाधिकारी 2. सदस्य-सचिव और 3. सदस्य। इन तीन शक्तियों के मध्य में समिति रहती है। यहाँ यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि राजभाषा विभाग, क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय को क्यों छोड़ दिया गया? यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग तो दिशानिर्देशक, नीति निर्धारक है अतएव इसके बिना तो राजभाषा कार्यान्यवन का पहिया घूम ही नहीं सकता है। यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि समिति के दैनिक कामकाज में क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय सक्रियतापूर्वक जुड़े। समय-समय पर क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय अपनी भूमिका को निभाते रहता है, दिशानिर्देश देते रहता है।

(1)  कार्यालयध्यक्ष की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका : राजभाषा कार्यान्यवन के इंजन में ईंधन का कार्य कार्यालय के अध्यक्षों द्वारा दिये गए सुझाव, लिए गए निर्णय, आर्थिक पक्ष पर अभिमत आदि ऐसे मुद्दे हैं जिसके बल पर विकास का पहिया घूमता है। जिस नाराकास में कार्यालयध्यक्षों की उपस्थिती जितनी अधिक होती है उस समिति की गतिविधियां उतनी ही प्रचुर, प्रमुख और प्रेरणादायी होती हैं। एक सुविचारित निर्णय, सर्वसहमति से पारित प्रस्ताव, सर्वांगीण प्रगति के लिए निर्धारित आर्थिक आधार केवल सदस्य कार्यालयों के उच्चाधिकारी की उपस्थिती से ही संभव है।

(2)  सदस्य-सचिव – एक कुशल संगठनकर्ता : नराकास की समिति में सदस्य-सचिव की भूमिका प्रमुखता से नज़र आती है। समिति की प्रत्येक गतिविधि में सदस्य-सचिव की उपस्थिती, योगदान आवश्यक ही नहीं अनिवार्य होती है। सदस्य-सचिव का सीधा संपर्क सदस्य कार्यालयों के राजभाषा अधिकारियों से होता है। यहाँ पर वैचारिक मतभेद, राजभाषा नीतियों की अपने-अपने ढंग से व्याख्या, कार्यान्यवन के विभिन्न दृष्टिकोणों का आपसी टकराव होने की संभावना हमेशा बनी रहती है ऐसी स्थिति में टकराव की स्थिति को दूर करते हुये कार्यान्यवन को गतिशील बनाए रखना सदस्य-सचिव का दायित्व है और यदि सदस्य-सचिव एक कुशल संगठनकर्ता नहीं बन पाता है तो समिति में राजभाषा अधिकारियों के बीच विवाद उत्पन्न हो जाने की संभावना बनी रहती है। सदस्य-सचिव यदि राजभाषा अधिकारियों में बेहतर ताल-मेल स्थापित कर पाने में सफल हो जाता है तो वह समिति को एक नयी बुलंदी देने की ज़मीन तैयार कर लेता है।

(3)  सदस्य- राजभाषा के आसमान में सम्मान की तलाश : सामान्यतया सदस्य को समिति से एक पुरस्कार की चाहत होती है इसी को मध्य में रख कर उसकी अक्सर राजभाषा की आहट होती है। राजभाषा की इस आहट से भी राजभाषा कार्यान्यवन को गति मिलती है। सदस्य बैंकों को यह नहीं देखना चाहिए कि दूसरे सदस्य कितना सहयोग दे रहा हैं क्योंकि प्रत्येक राजभाषा अधिकारी की क्षमताओं की सीमा है इसलिए एक बात को अपने उच्चाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करने में भी अंतर आ जाता है। जिसका सम्प्रेषण जितना स्पष्ट होता है वह उतनी ही आसानी से अपने कार्यालय से अनुमति प्राप्त कर लेता है। सदस्यों का एक दूसरे के प्रति आदर-सम्मान की भावना होने से भी आपसी ताल-मेल बेहतर बना रहता है।  सदस्यों में जितना अच्छा ताल-मेल होगा समिति के परिणाम उतने ही श्रेष्ठ होंगे।

उक्त त्रिकोण ही नराकास की रीढ़ की हड्डी है जिसके सहारे नगर में राजभाषा का विकास होता है, विभिन्न प्रतियोगिताओं, आयोजनों को सम्पन्न किया जाता है। नराकास के निष्पादन को बेहतर बनाने के लिए समिति को सोच, संकल्पना और सर्जना को न केवल नवीनता प्रदान करनी होगी बल्कि कार्यान्यवन को एक वृहद आयाम भी देना होगा जैसे :-

(1)  परम्पराओं का आधुनिकीकरण : बैंक के स्टाफ सदस्यों में नराकास की लोकप्रियता आयोजित प्रतियोगिताओं के द्वारा होती है। बैंकिंग विषयों पर निबंध लेखन को छोडकर शेष आयोजित प्रायियोगिताओं में नयेपन की आवश्यकता है। यह नयापन प्रौद्योगिकी की सहायता से, आकर्षक प्रस्तुति एवं संचालन आदि से लाया जा सकता है। अब नए स्टाफ सदस्यों की संख्या बढ़ रही है जो युवा हैं इसलिए तदनुसार प्रतियोगिताओं के विषय चयन से लेकर पुरस्कार वितरण तक कहीं प्रस्तुति के अंदाज़ में परिवर्तन किया जाना चाहिए तो कहीं प्रौद्योगिकी के माध्यम से आकर्षक बनाना चाहिए। ऐसा होना शुरू हो गया है पर गति बहुत धीमी है।

(2)  छाते से बाहर नीला आसमान है : प्रायः यह पाया जाता है कि संस्कृति का नाम लेकर जो होता चला आ रहा है उसपर ही मुहर लगती है और कुछ नयेपन की बात पर संस्कृति की दुहाई देकर एक नयी संभावना को प्रस्ताव में ही समेट दिया जाता है। आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी ने अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का वृहद आधार दिया है, वैश्विक दृष्टिकोण और चिंतन ने परिवर्तन का नूतन बयार दिया है किन्तु अधिकांश नराकास अपने-अपने छाते से बाहर झाँकने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। यदि ऐसा ही रहा तो नए स्टाफ सदस्यों को नराकास अपने से जोड़ नहीं पाएगा।

(3) उप-समिति के गठन में परिवर्तन : नराकास में लिए गए निर्णयों को कार्यान्वित करने के लिए उप-समिति का गठन किया जाता है। इस उप-समिति के सदस्य केवल सदस्य बैंकों, वित्तीय संस्थाओं के राजभाषा अधिकारी होते हैं। प्रतियोगिताओं के आयोजन, कार्यान्यवन के लिए नए प्रस्ताव आदि को उप-समिति में एक रूप देकर समिति में निर्णय के लिए प्रस्तुत किया जाता है। कभी-कभी कुछ विशेष आयोजन के लिए उप-समिति को निर्णय लेना पड़ता है इसलिए यह आवश्यक है कि उप-समिति में अध्यक्ष भी हों। उप-समिति का अध्यक्ष संयोजक बैंक के अतिरिक्त सदस्य बैंकों से एक उच्चाधिकारी को एक निर्धारित अवधि के लिए बनाया जाए और उसके बाद दूसरे सदस्य बैंक के उच्चाधिकारी को निर्धारित अवधि के लिए उप-समिति कि अध्यक्षता दी जाए। यह ढांचा राजभाषा कार्यान्यवन के लिए और प्रभावशाली परिणाम में अत्यधिक सहायक साबित होगा।

(4) पत्रिका के संपादक बदलते रहें : प्रत्येक नराकास द्वारा पत्रिका प्रकाशित कि जाती है। इस पत्रिका के सदस्य-सचिव संपादक होते हैं और सदस्यों में से चयनित संपादक मण्डल में होते हैं। यह एक पुरानी परंपरा है और इसमें परिवर्तन लाना चाहिए। परिवर्तन इसलिए क्योंकि पत्रिका का उद्देश्य भी राजभाषा कार्यान्यवन है अतएव कार्यान्यवन कि इस प्रक्रिया में सम्पादन के अनुभव से समिति के अन्य सदस्य वंचित क्यों रहें? अतएव सदस्यों की सहमति से क्रम से संपादक को परिवर्तित करना चाहिए। इस प्रकार समिति राजभाषा अधिकारियों की गुणवत्ता में निखार लाने में सहायक होगी तथा संबन्धित बैंक के उच्चाधिकारी भी पत्रिका के लिए अपने विचार देते हुये प्रसन्नता का अनुभव करेंगे।

(5)  कार्यालयाध्यक्षों से विचार प्रस्तुत करने का आग्रह : नगर राजभाषा कार्यान्यवन की समिति की बैठक में अक्सर कार्यालयाध्यक्षों को बोलने के लिए आग्रह नहीं किया जाता है। अधिकांश समय मंच ही बोलता रहता है। यह एक पुरानी और उबाऊ संचालन शैली है। बैंकों की समीक्षा के दौरान जिस बैंक की समीक्षा हो जाय उस बैंक के उच्चाधिकारी से राजभाषा कार्यान्यवन पर बोलने का अनुरोध करना चाहिए इससे बैठक में उनकी सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित की जा सकेगी।          
    




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